स्कूलों के बिगड़ते दशा, बच्चे करते है नशा

लेखक :-डॉ विनोद कुमार शर्मा,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
निदेशक, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनोविज्ञान विभाग, एसपी कॉलेज, सिदो कान्हू मुर्मू विवि, दुमका।

झारखण्ड देखो डेस्क :- व्यक्तित्व विकास व चरित्र निर्माण में स्कूली शिक्षा एक अहम भूमिका निभाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया की प्रारंभिक मजबूत पायदान होने के साथ-साथ जीवन को एक व्यवस्थित आकर देने में इसकी महत्ता सर्वोपरि समझी जाती है। जीवन का यह बाल्यकाल कुम्हार की उस गीली माटी की तरह कोमल व लचीला होता है जिसे चाहो मनचाहा आकार दे दो। साथ ही बच्चों का मन मस्तिष्क एक सफेद कागज की तरह होता जहां जो चाहो लिख दो । वह लंबे समय तक तब तक बना रहेगा जबतक कि दूसरी गहराई बात उपसर ना लिख दिया जाय। इसलिए घर-परिवार में जन्म लेने वाले प्रत्येक बच्चे के पालन-पोषण व शिक्षा के मामले माँ-बाप विशेष रूप से चौकस रहते है। सतर्क व हाजिरजवाबी रहते है । कोशिश हमेशा उनकी यह भी रहती है उनके बच्चे को कहीं किसी तरह की असुविधा या परेशानी ना हो। वो इस बात के ख्यालों में सदा सक्रिय व तत्पर रहते है कि कैसे उनके बच्चे का शैक्षणिक भविष्य सुनहरा हो जिससे उसका दुनिया मे नाम रौशन हो। इस नाते वो बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए महंगे फीस वाले स्कूलों में भी पेट काटकर भी ,तकलीफे सहकर भी व गहने , जमीन, समान आदि जरूरत पड़ने पर बेचकर भी बच्चों के किताब, फीस के साथ अन्य जरूरतों को जुटाते है। कहने का तात्पर्य यह है कि माँ-बाप के लिए बच्चों का भविष्य बहुत ही कीमती होता है। यूँ कहे कि बच्चों के सुंदर भविष्य के वास्ते उसके सफल जीवन मे खुश होकर जिंदगी जीना चाहते है। इसलिए बच्चों की सफलता पर जहां अभिभावकों में खुशी की लहर दौड़ती है तो वहीं असफलता पर घर-परिवार में मायूसी के बादल भी छाते है। उदास होते है। तो कभी आंखों से अपने आँसू भी बहाते है। इस तरह कहे कि माँ बाप जिन कर्तव्यबोध व उम्मीदों के साथ बच्चों के सुनहरे जीवन के लिए यहां से वहां कदम बढ़ाते है। अपने दायित्वों के निर्वहन में अनेको तकलीफें उठाते है। सितम सहते है। बातों की ठोकरें तक खाते है। शायद इसलिये भी की उनके संतान ना केवल ज्ञान, विज्ञान की जानकारी के साथ नैतिक आचरणों के धनी बने बल्कि उतना ही प्रशंसनीय व्यवहारों के साथ अनुशासन प्रिय भी हो। जहां उसे चाहने वाला हजारों में हो। इस ख्याल से ही सही वो ये अपने तमाम सपने स्कूली शिक्षा व मार्गदर्शन के सहयोग से ही पूरा होते देखना चाहते है।
परंतु विडम्बना यहां यह है कि वर्त्तमान में अधिकांश अभिभावकों के सपनों पर यूँ पानी फिरता दिखता है। कुछ के लिए तो ऐसा सोचना क्या अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए वैसा सपने देखना तक भी मानो गुनाह- सा लगता है।
कहना ना होगा वर्त्तमान में स्कूली व्यवस्था के हालात बिगड़ते नजर आ रहे है। कुकुरमुत्ते की तरह यहां वहां स्कूल खोल शिक्षा व्यवस्था को धत्ता बताते पैसों की चांदी काटते है। सेवा के नाम धन उगाही करते है। तरह-तरह क्रियाकलाप के नाम मनमर्जी बच्चों से पैसा वसूलते है। ऐसे चिंतनीय माहौल में अभिभावकों के वो उम्मीदे पूरी होती नजर नही आ रही है जिनके लिए उन्होंने उतनी तकलीफें उठाई है। ऐसा नही कि उनके बच्चों की आई क्यू यानी बुद्धि लब्धि औसत से नीचे या कमजोर किस्म की है। यानी बच्चे उनके किसी भी प्रकार के शिक्षण विकार या मंद बुद्धि के शिकार नही है। कहना ना होगा कि स्कूल प्रबंधन बच्चों को हर तरह से परीक्षण कर योग्य होने से ही नामांकन लेते है। बावजूद इन तमाम सच्चाईयों के स्कूलों में अनुशासनहीनता दिखाई देती है। बच्चों में तरह-तरह के चारित्रिक या व्यवहारिक विकृतियां दिखाई देती है। झूठ बोलने व चोरी जैसी अशोभनीय हरकतों से लेकर तरह-तरह के नशा का सेवन भी स्कूली बच्चे स्कूलों में करते पकड़े गए है। और अबतब पकड़े जा भी रहे है जो आये दिन अखबार की सुर्खियों में देखने-पढ़ने को मिलता है। ये नशा गुटखा, सिगरेट, तम्बाकू, देण्ड्राईट, सुलेशन, कफ सिरोप, भांग, आदि से होते हुए शराब तक पहुंच कर अपनी जिंदगी दाव पर लगाते है। यह दुर्भाग्य की बात तब और बन जाता है जब बच्चों के भविष्य को लेकर देखे गए सपनो कर पानी तब और फिरता दिखता है जब उनके बच्चों में शैक्षणिक गिरावट औसत से कम की होती है । इतना कि बच्चे प्राप्त परिणामो से निराश हो व सामाजिक निंदा से बच्चे के वास्ते आत्महत्या करने की ना केवल सोचते है, योजना बनाते है बल्कि उतारू भी हो जाते है। और मौका पाकर मौत को गले लगा लेते है जिसका खामियाजा ना केवल उस परिवार व समाज को उठाना पड़ता है बल्कि उस राष्ट्र विशेष को भी हानि होती है जिसका कि वह मानवीय पूंजी होता है। क्षति उस स्तर की भी होती है।
इन तमाम बातों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि डाले तो इस संदर्भ में कई बातें सामने आती है जिसपर ना केवल विचार कर उन मनोवृतियों में अपेक्षित बदलाव लाने की आवश्यकता है बल्कि एक सुंदर , स्वास्थ्य व अनुशासन प्रिय शैक्षणिक वातावरण को प्रभावी होने को भी सुनिश्चित करना है जिसके लिए समाज व सरकार दोनो को एक प्लेटफॉर्म पर आने की आवश्यकता होगी। कुछ विचारणीय बातें इस प्रकार है:
1. व्यावसायिक सोच: संविधान ने हमे शिक्षा का अधिकार दिया है लेकिन उन स्टैंडर्ड मानी जानी वाली स्कूलों में गरीब बच्चों को पढ़ने का अधिकार शायद नही दिया है। व्यवसायिक सोच वाली मानसिकता क्वालिटी शिक्षा देने के नाम पर ना केवल अर्थदोहन करती है बल्कि समाज मे ऊंच-नीच की खाई भी पाटती है।
2. शैक्षणिक मानकों में गिरावट: दुःख इस बात का भी है कि आज इस मनको की अनदेखी हो रही है जिसका ही नतीजा है आज प्रत्याशा के अनुकूल शैक्षणिक उपलब्धियां हासिल नही हो रही है। बच्चों में ना केवल चारित्रिक विकार घर कर रहा है बल्कि विषादों से घिर मौत को भी गले लगा रहे है। नशा आदि का सेवन कर अनुशासनहीनता का परिचय दे रहे है। नशा व्यसन का शिकार हो वो हत्या, छोटे-बड़े अपराध से लेकर लैंगिक विचलन का शिकार हो चल रहे है।
3. बाल मनोविज्ञान का नजरअंदाज किया जाना: शिक्षा की नीति बाल केंद्रित मानी जाती है लेकिन बिडम्बना है कि स्कूल तो स्कूल शिक्षक भी धन उगाही के चक्कर मे रहते है जिससे बच्चों के भावनाओं का कोई कद्र नही होता है।बच्चों के शैक्षणिक हो या मानसिक परेशानी उनको उनके वैसा समझकर व्यवहार नही किया जाता है जिसकी अपेक्षा की जाती है। फलाफल कि इससे भी बच्चे अंदर से आक्रामक हो गलत कार्य करने लगते है। जिसकी निंदा सर्वत्र होती है।
4. अभिप्रेरणा की कमी: बच्चों में प्रोजेक्ट विषय या फिर जरूरत के उद्देश्यों को छोड़ शायद ही सामान्य दिनों में विद्यार्थियों को शिक्षक बिना मतलब के शैक्षणिक उपलब्धि के लिए अभिप्रेरित करते है। यही वजह है कि ऐसा ना होने से आज शैक्षणिक गिरावट में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। छात्र व शिक्षक में दूरियां बढ़ती जा रही है। छात्रों का शिक्षकों के प्रति ना केवल सम्मान घट रहा है बल्कि समाज विरोधी व्यवहारों में भी वृद्धि हो रही है। अनुशासनहीनता बढ़ रही है।
5. दोषपूर्ण स्कूली वातावरण का होना: व्यवहारवादी वाट्सन का कहना है कि बच्चे वैसे ही बनेंगे जैसा हम बनाना चाहेंगे। और यह सब संभव है वैसा वातावरण का निर्माण कर। यह दोषपूर्ण वातावरण ही है कि बच्चे आज मानसिक तनाव, विषाद आदि से प्रभावित हो गैर कानूनी हरकते करते है।
6. फीस पर जोर अधिक गुणवत्ता पर कम: स्कूली मानसिकता खासकर के प्राइवेट स्कूल फीस पर ज्यादा ध्यान देते है। लेट फीस से ना केवल फाइन वसूलते है बल्कि बाहर निकालने की धमकी अभिभावक को देते है। बच्चों को परीक्षा देने से रोकते है। इस मानसिकता का शिकार अभिभावक व बच्चे दोनो होते है।
7. अस्पष्ट परिस्थिति: कभी-कभी बच्चों को ऐसे अस्पष्ट परिस्थितियों में रखते है कि वो क्या करना क्या नही करना के संदेशों को ठीक से समझ नही पाते है। जो ना केवल बच्चों घर-स्कूल चिड़चिड़ा स्वभाव का बनाता है बल्कि आत्मविश्वास को भी कमजोर करता है।
8. पक्षपात मनोवृत्ति: ऐसा भी देखा जाता है कि स्कूल में शिक्षण के दौरान हो या उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन के वक़्त जाति, धर्म के पूर्वाग्रही मानसिकता को लेकर ना केवल भेद किया जाता है बल्कि वैसा कमोवेश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से व्यवहार भी किया जाता है जिससे प्रभावित बच्चें में प्रतिकारात्मक मनोवृत्तियां घर करती है और वो गलत व्यवहारों के आदि बनते है। क्रोध में आकर नशा भी करते है।
9. स्कूलों में परामर्शदाता का ना होना: कुछेक स्कूलों को छोड़ दे तो अर्थदोहन मानसिकता वाले स्कूल इसकी महत्ता को नही समझते है। सिवाय पढ़ाई व परीक्षा लेने के बच्चों की भावनाओं व समस्याओं से कोई लेना देना नही होता है।
10. अभिभावक व शिक्षको संबंधों का सर्वथा अभाव: बच्चों के भविष्य के लिए इन संबंधों में प्रगाढ़ता होनी जरूरी होता है लेकिन स्कूल प्रशासन द्वारा इसकी सदैव उपेक्षा की जाती है। उत्तरपुस्तिका दिखाने के बहाने मात्र पैरेंट टीचर मीटिंग की जाती है। औऱ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अममंत्रित कर संबंधों की औपचारिकता निभाते है।
इस तरह की कश्मकश परिस्थितियों में ना तो बच्चें खुश होकर स्कूलों से अपेक्षित शैक्षणिक लाभ ले पाते है और ना ही अभिभावक जो बच्चों के लिए सर्वस्व लुटाएं फिरते है। इस तरह स्कूलों के बिगड़ते रश्मो रिवाज से अभिभावक जहां चिंतित परेशान है वहीं बच्चे अपनी कुंठा को छिपाने के लिए करते है नशा। लगते है मौत को गले। जररूत है स्कूली मानसिकता को बदले की । अर्थदोहन वाली मानसिकता को त्याग कर नैतिक मानकों व मूल्यों के साथ संस्थागत दायित्वों को निष्पक्ष व ईमानदारीपूर्वक निभाने की तभी स्वास्थ्य समाज के निर्माण की कल्पना सार्थक साबित होगी। इस तरह से ना केवल समाज में व्याप्त असुरक्षा, तनाव व भय के वातावरण में कमी आएगी बल्कि विश्वासों के साथ सामाजिक समरसता , आपसी प्रेम व भाईचारगी में भी प्रगाढ़ता होगी।

Post Author: Sikander Kumar

Sikander is a journalist, hails from Dumka. He holds a P.HD in Journalism & Mass Communication, with 15 years of experience in this field. mob no -9955599136

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