वेलेंटाइन डे: 14 फरवरी
लेखक :-डॉ विनोद कुमार शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर,
निदेशक,
मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनोविज्ञान विभाग,
एस पी कॉलेज, दुमका।
‘वेलेंटाइन डे’अर्थात ” प्रेम दिवस” दिल मे उमड़े रागात्मक भावनाओ को अभिव्यक्त करने का माध्यम माना जाता है । यह नदी में उफनती तेज धारा की तरह है जिसमें डूबने वाला हर दिल व उम्र बेकरार रहता है। मौके की फिराक में रहता है। अवसर मिला नही कि दिल लूटा बैठने को आमदा हो जाते है। इसमें असीम आनंद है। खुशी है तो प्रसन्नता का सैलाब भी। जो दो भावनाओं के संधि समास से निर्मित होती है। शायद यही वजह है कि आज के युवा संवेगात्मक भावनाओ के जुनून में प्रेम के जाल में जा उलझ फँसने को आतुर दिखते है। उम्र की सीमा आई नही कि कि दिल मे चाहतों के बीज बोने लगते है। सपने देखने लगते है। रातों को जगने लगते है। ख्वाबों ख्यालों में डूबने लगते है। वैसी पंसन्दीदा तस्वीर आंखों में बसाते है। सोचते है। इरादे बनाते है। इतना ही नही वो प्रेम में योगी , प्रेम रोगी भी बन जाये तो भी उसके लिए यह कम ही होगा। उनके लिए प्रेम तो निष्पक्ष निर्मल अमृत जलधारा है जिसे पीने उतना ही मजा है जितना उसमें डूबने में। प्रेम को तो दार्शनिक लोग आत्मा की पुकार मानते है। इन तमाम सच्चाईयों के प्रेम को इतनी कम बातो से बांधा नही जा सकता है औऱ ना ही परिभाषाओं की जंजीरों से जकड़ा ही जा सकता है। क्योंकि प्रेम के अनेको रंग, रूप व स्वभाव है जो आत्मिक स्नेह व त्याग के कण-कण में बसा होता है। जो ना कहीं किसी बाजार में बिकता है और ना ही इसे जबरदस्ती से छीना या हासिल किया जा सकता है। प्रेम तो अनंत है। सर्वशक्तिमान है। प्रेम को प्रेम से हो जीता जा सकता है। उसे अपना बनाया जा सकता है। कहना ना होगा कि
प्रेम मूलतः संवेगात्मक अभिव्यक्ति है जो चाहने वालो के लिए अमृत समान होता है। जिसे कृष्ण दीवानी मीरा ने भी प्रेम में जहर को अमृत बना दिया था।
मनोविज्ञान प्रेम को दर्शन व अध्यात्म से भिन्न व्याख्या करता है। मनोविज्ञान के जनक सिगमंड फ्रायड की माने तो प्रेम अचेतन मन की संतुष्टि का आधार है जिसका तात्पर्य अंततः लैंगिक सुख की प्राप्ति है। लोग अपनी लैंगिक संतुष्टि की प्राप्ति के लिए जो नजदीकियां या संबंध बनते है वही रागात्मक संबंध संभवतः प्रेम है। बच्चे मा से इसलिए प्रेम प्रदर्शित करते है ताकि उनकी इच्छाओं की संतुष्टि हो और जो उनके विभिन्न लौंगिक क्षेत्रों के माध्यम से पूर्ण होता है। संतुष्टि पूर्ण होते ही बच्चें माँ को भूल खुद के दुनिया खेलने हँसने-मुस्कुराने लग जाता है। यहां प्रेम संबंध स्वार्थीपूर्ति का है। जबकि नव फ्रायड वादी इसे नही मानते है।उनके अनुसार प्रेम संस्कारों की देन है। एक सामाजिक प्रक्रिया हैं। एक सामाजिक आवश्यकता है। भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है।
मनोविज्ञान प्रेम को निम्न रूप से व्याख्या करता है:
1. स्व प्रेम ( नारसिसिज्म): यह स्व प्रेम है जिसे सभी स्त्री-पुरुष स्वीकार करते है। अत्यधिक प्रेम इसके विचलन को दर्शाता है। आज के युवा मन इस स्व प्रेम को दूसरे के लिए आकर्षण का केंद्र बनाना चाहता है। जिससे दूसरे लोग उसके प्रति खींचा चला आये। एक लगाव बनाये। एक भावनात्मक संबंध जोड़े। यह एक शारीरिक आकर्षण मात्र भी हो सकता है जो उसकी खूबसूरती पास ले आती है।
2. सामाजिक प्रेम: सामाजिक प्रेम संभवतः एक ऐसा सामाजिक अभिप्रेरणात्मक आवश्यकता है जिसको सभी धर्म, आयु, वर्ग, संस्कृति के लोग निभा रहे है। यह सामाजिक प्रेम ही समस्त सृष्टि का मूल आधार समझा जाता है। यही वजह है कि आज विभिन्न जातियों के बीच प्रेम संबंधों को मान्यता मिल रही है। मर्यादाओं और मानकों के भीतर किये प्रत्येक व्यवहारों को स्वीकृति प्रदान की जाती है। प्रेमविहीन व्यक्ति जहां नीरस या मनोविकारी समझा जाता है वहीं प्रेमविहीन समाज असुरों का माना जाता है। समाजविरोधी ताकतों का माना जाता है। मानवविरोधी मानसिकता का माना जाता है।
3.व्यामोही प्रेम: इसमे व्यक्ति को लगता है कि कोई उससे बेहद प्रेम करता है। उसे चाहता है। इसी प्रेम के मनोविकारी झूठे प्रेम में व्यस्त दिखता है। यह वास्तविक अर्थात यथार्थ की दुनिया से हटकर स्वनिर्मित संसार मे मनोविक्षिप्तिय प्रेम भी होता है जहां वो खुदी से अकारण हँसने व मुस्कुराने लगता है ।
प्रेम की संज्ञानात्मक बातें : समाज मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रेम और प्रेम संबंधों को माने तो कल के और आज के प्रेम व्यवहारों में काफी विचलनशीलता आ गई है। प्रेम की परिभाषा बदल दी गई है। कल तो जो प्रेम आत्मिक स्वभाव का त्याग व समर्पण प्रवृति के हुआ करता था आज मात्र शारिरिक व भावनात्मक आकर्षण का केंद्र मात्र रह गया है। वो प्रेम मन से ना रहकर शरीर केंद्रित हो गया है। वासना युक्त हो चला है।जो प्रेम कल तक देखकर भावनाओ से महसूस किया जाता था जिस बात एवं व्यवहार में पवित्रता होती थी वहीं आज एक दूसरे से प्रेम है कहना पड़ रहा है। यकीन नही होता है इसलिए खुल्लमखुल्ला ऐसे वैलेंटाइन डे के अवसरों पर लोगो के बीच प्यार है जताना पड़ता है। दिखाना पड़ता है।
यह वेलेंटाइन डे अगर मात्र पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, आदि-आदि के साथ प्रेम जताने का है तो क्या साल में एक दिन ही प्रेम-दर्शन जरूरी है। अगर प्रेम जताने व लोगो को दिखाने भर मात्र है तो इसका विरोध क्यों? क्यो इसे भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बताया जाता है? राधा-कृष्ण, लैला-मजनू, सीरी-फरहाद, सोनी-महिबाल आदि के प्रेम के उपासक इसे गलत क्यों मानते है? शायद इसलिए कि आज भौतिकवादी युग मे प्रेम भोग विलास का स्वरूप ले लिया है। अर्थव्यवस्था ने ऐसे प्रेम संबंधों में अर्थ दे दिया। प्रेम को सुंदर व भोग विलासी वस्तु करार दे दिया। जिसकी शारीरिक चमक युवाओं को खींच ले जाती है। जहां प्रेम कम वासना के लिए ज्यादा प्रेरित करता है। प्रेम के बहाने शारीरिक संबंध बनाने के लिए उत्तेजित करता है। जिस क्षणिक सुख प्राप्ति के लिए युवा प्रेमाजाल में फसने को आतुर दिखता है। उन मर्यादाओं को लांघ जाने को अपने को विवश पाता है। रश्मो रिवाजों की हदें पार कर जाने को बेचैन दिखता है। ऐसे युवा भावना दिल को प्रेम नही शारिरिक सुख चाहिए होती है जो ढाई आख़र प्रेम के नाम को बदनाम करता है। और शायद यही वो वजहें भी की लोग प्रेम प्रसंगों को गलत करार दिया जा रहा है और जिसे सच साबित करने के लिए कभी-कभी निर्दोष मन आत्महत्या के शिकार भी हो जाते है। तो कुछ लोग घर बार छोड़ देते है। कहीं लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए लोग ‘ऑनर किलिंग’ को अंजाम देते है। जो आज के प्रेम विचलित स्वरूप है। विश्वासों व मर्यादाओं से दूर बेहद संजीदगी व शर्मिंदगी का पर्याय बन गया है।
प्रेम के नए अंदाज: इंटरनेट की दुनिया ने प्रेम को एक नया अंदाज़ दिया है। इंटरनेट के जरिये बातों -बातों में सात समुंदर पार से भी नाता जोड़ लेते है और एक दूसरे में समा जाने को व्याकुल परेशान हो जाते है। दो दिनों की प्रेम संवेग का प्रस्फुटन ठीक से हुआ नही की भावनाएं उस तक जाने लगती है। शारीरिक संबंधों की मांग करने लगती है। अगर ऐसा होता है तो प्रेम है वर्ना यह प्रेम-छलावा। कहना ना होगा कि खासकर के लड़कियां लड़को की कपटी सोच को अपने निर्दोष मनोभाव के चश्मे से परख नही पाती है और उस ऐतिहासिक प्रेम की कल्पना कर सर्वस्व लूटा बैठती है। वो प्रेमी साख मित्र सभी इस प्रेम को बदनाम के जाते है जो उनके वीडियो वायरल कर दिए जाते है। बदनामी भरी जिंदगी जीने को मजबूर कर जाते है। औरो के लिए ट्रॉल्लिंग (गलत बातो का टीका टिप्पणी) करने के माहौल बना जाते है।