पिछले कई दिनों से अख़बार, टेलीविजन, इन्टरनेट हर जगह छोटे परदे की अभिनेत्री प्रत्युषा बनर्जी की आत्महत्या की ख़बर छाई रही. प्रत्युषा जो की झारखण्ड की बेटी थी, मशहूर टीवी धारावाहिक “बालिका बधू” की मुख्य किरदार “आनंदी” से घर घर में अपनी पहचान बनाई. लेकिन चमक से भरी दुनिया में नाम, पैसा के साथ साथ तनाव और अवसाद भी आता है. और ये तनाव इतना ज्यादा हावी हो जाता है कि इन्सान की जीने की इच्छा ही ख़तम हो जाती है. ग्लैमर की दुनिया और सेलेब्रिटी को छोड़ भी दे तो भारत में आत्महत्या के आँकड़े आपको चकित कर देंगे. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते है जिनमे से एक लाख 35 हज़ार लोग भारतवासी है. यह संख्या कुल आत्महत्याओं का 17% है. तमिलनाडु, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल राज्यों में यह दर सबसे ज्यादा है.
अक्सर हम आत्महत्या के लिए आधुनिक जीवन शैली, एकाकीपन और व्यस्तता को दोषी ठहराते है. लेकिन यह कारण पर्याप्त नहीं है, अब जीवन शैली को बदलने की कुछ खास गुंजाइश नहीं है. अब हमे अपने परिजनों और दोस्तों के मानसिक स्थितियों को भाँपना पड़ेगा और समझना पड़ेगा. अफ़सोस की बात यह है कि अभी भी हमारे देश में तनाव या अवसाद को कोई गंभीर मेडिकल स्थिति नहीं समझा जाता, ख़ासकर मध्य वर्गीय परिवारों में. ज्यादातर तो समझ ही नहीं पाते है की उनका कोई अपना अवसाद में है. अगर कोई समझ भी जाता है तो यह कहकर पल्ला झाड़ देता है कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाना है. कोई तो मूवी देखने या किसी हिल स्टेशन में घुमने जाने की सलाह दे डालते है. लेकिन जटिल मानसिक तनाव इतनी आसानी से नहीं जाते है. उसके लिए एक विधिवत् इलाज़ की जरूरत है जो एक मनोचिकित्सक ही दे सकता है. एक मनोचिकित्सक अवसाद या डिप्रेशन की जड़ में जाता है और क्रमागत सत्रों के ज़रिये उसको दूर करने का प्रयास करते है. आज भी हमारे समाज में मनोचिकित्सक के पास जाना पागलपन की पहली निशानी मानी जाती है. कुछ लोगो के लिए तो यह राँची या आगरा जाने के सामान है. भारत में 15 से 29 साल उम्र के लोगो की आत्महत्या करने की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है. कहीं ना कहीं इसके लिए हम जिम्मेदार तो नहीं है? इतने सारे प्रयास और प्रचार के वावजूद भी हम साधारण लोगो की धारणाओं को बदलने में असफल रहे है. मेरे एक करीबी मित्र को डिप्रेशन और तनाव की शिकायत हुई जो भीतर ही भीतर उनको खाए जा रही थी. उन्होंने एक मनोचिकित्सक की सेवाएं लेनी शुरू की, जो काफी मददगार भी साबित हुई. लेकिन, यह बात जब हमारे और एक मित्र को मालूम हुई उनकी टिप्पणी आई कि यह सब मनगढ़ंत बातें है, खुद की पैदा की गयी समस्या है. बहुत ज्यादा सोचने से हुई है. भारत में आत्महत्या करने वालों में से 80 फीसदी लोग पढ़े-लिखे होते है. क्यों? कारण आपके सामने हाज़िर है.