देश के इतिहासकारों के अनुसार आज़ादी की पहली लड़ाई की शुरुआत भले ही 1857 मानी जाती है, लेकिन झारखण्ड में इसकी शुरुआत दो वर्ष पहले हो गयी थी जब 30 जून 1955 को साहेबगंज जिले के भगनाडीह में 400 गाँव के लगभग 50,000 आदिवासियों ने चार भाइयों – सिद्धो, कान्हू, चाँद और भैरव के नेतृत्व में अंग्रेजों को मालगुजारी देने से इंकार करने की घोषणा की. इस अवसर पर सिद्धो ने कहा – करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो. अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया. गिरफ्तार करने आए दरोगा को संथाल आन्दोलनकारीओं ने गर्दन काटकर हत्या कर दी. इसके बाद संथाल परगना के सरकारी अधिकारिओं में आतंक छा गया.
अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आन्दोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा. मार्शल लॉ लगाया गया. आदिवासियों की जमकर गिरफ़्तारी हुई, लाठियां चली, आन्दोलनकारीओं पर गोलियां चलायी गयी. इस लड़ाई में चाँद और भैरव शहीद हो गए. इस लड़ाई की आग हजारीबाग तक पहुँच गयी थी. जब तक एक भी आन्दोलनकारी जिंदा रहा, वो लड़ता रहा. अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब The Annals of Rural Bengal में लिखा है कि अंग्रेज का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हो. अपने कुछ विश्वस्त साथियों के विश्वासघात के कारण सिद्धो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भागनाडीह गाँव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दी गयी. इस लड़ाई में लगभग बीस हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी.
नागपुरी साहित्यकार और इतिहासकार वी. पी. केशरी के अनुसार
यह विद्रोह भले ही ‘संथाल हूल’ हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेज़ों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन किंतु ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव थे।