झारखण्ड देखो डेस्क : वर्त्तमान समय मे युवाओं में आक्रामक प्रवृतियां दिनोदिन बढ़ता जा रही है। जिसका खामियाजा पूरे समाज को उठाना पड़ता है। कहना ना होगा कि इस आक्रामक प्रवृतियों की ही देन है कि इससे ना केवल समाज मे समाज विरोधी गतिविधियों में इजाफा हो रहा बल्कि सामाजिक मानकों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन भी हो रहा है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की धज्जियां उड़ रही है। यह चाहे नर संहार की हो, नक्सली गतिविधि हो, हत्या, अपहरण, लूट हो या पत्थलगड़ी की घटना, सभी बापू के विचारों की धज्जियां उड़ाती है। उन आदर्श विचारों को अपमानित करता है। संभवतः यही वजह है कि ऐसी अनैतिक व अमानवीय आचरणों को बढ़ते देख भारत के वर्तमान राष्ट्रपति ने भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने संदेश में इस बात की चिंता जताते हुए कहा कि कोई भी आंदोलन या विरोध हो वह हिंसा का कदापि नही होना चाहिये।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी सभ्य समाज के लिए हिंसा का व्यवहार अपमानजनक लगता है। युवाओं को ऐसे तमाम गतिविधियों को तिरस्कृत करना चाहिये जिसका स्वरूप हिंसा से जुड़ा हो। हिंसा से लक्ष्य की प्राप्ति चाहें हो या ना हो परिवार एवं समाज मे अशांति व असुरक्षा वातावरण अवश्य बनता है जो असभ्य समाज का एक लक्षण है।
युवा किसी भी देश का कर्णधार माना जाता है। वह शरीर के मेरुदंड की तरह है जिससे राष्ट्र की विकास व समृद्धि का पैमाना सुनिश्चित होता है। इतना ही नही उनमें देश की दशा व दिशा बदलने की तमाम क्षमता मौजूद होती है। इसलिए भी स्वामी विवेकानंद जी की बाते और भी सार्थक हो जाती है कि युवाओ को तबतक कार्य करते रहनी चाहिये जबतक उन्हें उनके लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाये। युवाओं को विवेकानंद जी के उन आदर्शो पर चलकर देश की बिगड़ते हालात को सुधारने की जरूरत है ना कि उस बेबुनियादी आग में स्वयं को जलाकर नफरत फैलाना है। और उस नफरत का शिकार होना है।इस नकारात्मक सोच को सकारात्मक दिशा में बदलते हुए उन भटके साथी मित्रों को भी मुख्यधारा में लाकर सामाजिक विकास को गति देने की जरूरत है तभी बापू के सपनो को साकार हुआ समझा जा सकेगा।
एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर इन युवाओं में ऐसी भटकाव क्यो? क्यों इसमे इतनी आक्रामक प्रवृतियां घर कर रही है? क्यों अपने विचारों व सिद्धान्तों में इतनी जिद्द रखते है? क्या मानवता से बढ़कर जाति, धर्म, रीति-रिवाज, संस्कृति, सिद्धान्त, विचार आदि आते है? क्या ऐसा धर्म या विचार है दुनिया मे जो इंसान को इंसान से बैर करना सिखाता हो? शायद नही!
युवाओं के इस आक्रामक प्रवृत्ति पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि डाले तो कहना पड़ेगा कि यह आक्रामकता के मूल में मृत्यु मुलप्रवृति ( डेथ इंस्टिंक्ट) का होना है। इस प्रवृत्ति से प्रभावित व्यक्ति ही अपनी मांगों या इच्छाओं की पूर्ति हेतु हिंसा की राह अपनाते है या गैर सामाजिक व्यवहार कर जैसे भी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की रणनीति बनाते है। ऐसे स्वभाववाले व्यक्ति ही समाज मे अशांति व असुरक्षा का माहौल बनाते है। जहां की ‘ बलि का बकरा ‘ सिद्धांत की प्रबलता रहती है यानी अपने से कमजोर को जुल्म का शिकार बनाना है। एक प्रभुत्ववादी सामाजिक अभिप्रेरणा सक्रिय रूप से चेतनतः काम करती है ऐसे लोगो के मन मे। यह प्रवृतियां जन्मजात तो कुछ परंपरागत भी होती है।
आक्रमकता का दूसरा पहलू मनोवैज्ञानिक दृष्टि में वातावरण जनित भी है। आक्रामकता जिंदगी में मिलें निराशाओं के बदौलत होती है और जो यह निराश उस व्यक्ति को किसी-न-किसी क्षेत्र में मिली असफलता से उपजी होती है।
व्यवहारवादी वैज्ञानिक वाटसन का कहना है कि किसी भी घटना का उत्तरदायी सामाजिक वातावरण है। जैसा वातावरण होगा लोगों का स्वभाव व व्यवहार भी वैसा ही होगा। यानी प्रत्येक अच्छी व बुरी घटना के घटने के पीछे उस वातावरण विशेष का ही हाथ होता है। अच्छे वातावरण होने के लिए सामाजिक व नैतिक मानकों व मूल्यों का मजबूती के साथ प्रभावकारी होना आवश्यक है।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक जनक व मनोविश्लेश्वनवादी सिगमंड फ्रायड का मानना है कि कोई भी व्यवहार यूँ ही नही घटित होता है। उसका कुछ-न-कुछ अचेतन जुड़ाव होता है। प्रत्येक घटना का एक अर्थ होता है। ऐसे घटित तमाम व्यवहारों का कोई-न-कोई मतलब होता है जिसे विश्लेषण करने की सख्त आवश्यकता होती है और जिसके आलोक में ही उन भावनाओ को समझते हुए उक्त समस्या का समाधान किया जा सकता है और अस्वस्थ्य हो रहे मन और विचार को रोका जा सकता है।
बिडम्बना यह है कि हम युवाओं से अपेक्षाएं तो हजार करते है लेकिन उनके भावनाओ को भरसक समूल रूप से समझने का प्रयास नही किया जाता है सिवाये उन्हें समझाने के। उनपे गैर जरूरी विचारों को थोपने के। अपनी बात मनवाने के। नतीजा वैसे निराश व क्रुद्ध मन के आवेगों या संवेगों की अभिव्यक्ति नही हो पाती है। जो आगे चलकर यहीं निराश मन आक्रामकता का बादल लिए इधर-उधर घूमता है। जहाँ तेज हवाओं वाली बातों की जोर जबरदस्ती हुई नही की युवा आक्रामकता का बारिश कर देते है।
कहना ना होगा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यू एच वो) के एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 10 फीसदी युवा विषाद से ग्रसित है। जिसकी आड़ में आक्रामकता पल रही होती है। क्या यह चिंतनीय विषय नही?
जरूरत है युवाओं की संवेगात्मक अभिव्यक्तियों को समझ कर चलने की। उनके भावनाओ को समझने की।उनकों सही दिशा देने की। उचित मार्गदर्शन व समय-समय से परामर्श देने की। उन बाधाओं को दूर करने की जिससे ये निराश होते है। उन्हें उचित शिक्षा देने की। रोजगार से जोड़ने की। लाभकारी योजनाओं से जोड़ने की। व्यस्थाओं को भ्रस्टाचार मुक्त कर निष्पक्ष बनाने की। उनके हित के व सम्मान की सोचने की। तभी युवाओ में बढ़ते आक्रामक प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा व विषादों में कमी आएगी।
लेखक :-डॉ विनोद कुमार शर्मा,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
निदेशक, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनिविज्ञान विभाग, एस पी कॉलेज, सिदो कान्हू मुर्मू विवि, दुमका।