लेखक :-डॉ विनोद कुमार शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
निदेशक,
मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनोविज्ञान विभाग, एस पी कॉलेज, सिदो कान्हू मुर्मू विवि, दुमका।
झारखण्ड देखो डेस्क :- भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट आचरण आज एक विश्वव्यापी समस्या बन हमारे सामने एक अदम्य चुनौती लिए सुरसा की तरह मुँह वाये सामने खड़ी है। यह अतिश्योक्ति नही कि भारत देश भी इस आग में जलने से अछूता नही है। बल्कि कहे कि भ्रष्टाचार के अच्छे श्रेणी पर खड़ा है। इसके तपिश का शिकार है।
विज्ञान, तकनीकि,सोच-समझ के मनो-सामाजिक विकास के साथ जीवन गुणवत्ता में सुधार की बातें जहां सुर्खियों में हो रही है वही उसी समाज भ्रष्टाचार का सफाया होने के बजाय छोटे से बड़े अंशो में यहां वहां कुकुरमुत्ते की तरह उगता ही दिखाई देता है जिसकी पुष्टि नित्य अखबारों की सुर्खियां करती रहती है। वर्त्तमान में जीवन में जन्म से लेकर मृत्युपरांत भी जलाने व दफनाने के दौरान भी भ्रष्टाचार का दंश झेलना पड़ता है। कहने को तो सभी कहते है भ्रष्टाचार की प्रथा अच्छी नही है।यह सर्वत्र निंदनीय विषय है। इससे समाज कलंकित होता है। समाज मे अशांति व अस्थिरता बढ़ती है। लोगों में आपसी विश्वास घटता है जो किसी भी दृष्टिकोण से उचित व्यवहार नही है। इन बातों की सहमति और सच्चाईयों के बावजूद मानव समाज के जड़ में क्यों समाया है? क्यों जड़ से उखाड़ फेंकने की दृढ़ संकल्पित प्रयास नही किया जाता है? क्यो ऐसे भ्रष्ट राहों से जिंदगी गुजरने को मजबूर हो रही है? जबकि इरादा नेक है फिर भी मूकदर्शक बन लाचार बेबस दिखते क्यों ? आदि-आदि अनगिनत सवाल होंगे जिसको शायद जवाब कम स्थाई समाधान की ज्यादा अपेक्षा होगी।
कहना ना होगा आज समाज का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र, संस्थान, निजी हो सरकारी या गैर-सरकारी संगठन या छोटे-मोटे व्यवसायी के स्कूल दुकान सभी सभी इसके रंग में रंगे चल रहे है। आखिर इसके पीछे क्या मनोविज्ञान है जो हठी की तरह जीवन के हर मोड़ पर आ खड़ा दिखाई देता है। ना चाहते हुए तू-तू, मैं-मैं का सामना करना पड़ता है। इस ओर मनोवैज्ञानिक दृष्टि डाले तो यह समझना होगा कि आखिर ये भ्रष्टाचार जन्म लेता कैसे और कैसे यह इतना पांव फैलाता चल जाता है।
भ्रष्टाचार का जन्म अप्रसन्नता के गर्भ से असंतुष्टि के बीज से होता है जिसकी आवयश्कता एक सामाजिक पहचान की होती है। उस खुशी की होती है जो भ्रमों व व्यामोहो (झूठी शान शौकत के विश्वास का) से युक्त होती है। और जिसके अचेतन में छुपा होता है ‘शक्ति संवर्धन, अनुमोदन व सामाजिक प्रभुत्व की सामाजिक लालसा। यह एक तरह से समाज मे किन्तु-परंतु के सोच का अंतर्द्वंद्व का फलाफल है जो भ्रष्टाचार का मार्ग प्रशस्त करता है। यह उस असंतोष व अप्रसन्न मन का नतीजा है जो ऐसे आचरणों से अपनी ख़ुशियों की क्षतिपूर्ति करता है। और खुद को एक सामाजिक शक्ति का प्रबल दावेदार साबित करना चाहता है जिसके ‘हाँ’ से ‘हाँ’ हो और ‘ना’ से ‘ना’ । यही वह भ्रष्टाचार की प्रबल पहलू है जिसके आड़ में भ्रष्टाचार रूपी बरगद पेड़ अपना जड़ यहां से वहां तक फैलाते चलें गई। यह बातें राजनीति क्षेत्र की हो, शिक्षा की हो, चिकित्सा क्षेत्र की हो, नौकरी- व्यवसाय की हो या जीवन के अन्य क्षेत्र फार्मूला कमोवेश यही है कि ईमानदारी से कोई काम नही होगा। सच्चाई व मेहनत मात्र से बात नही बनेगी। भगवान विनती से माने तो माने मगर इंसान मन चाहा करार से नही चुकता। इज़्ज़त हो या पैसा काम के बदले कीमत चुकानी पड़ती है। इसके लिए चाहे घर उखड़े, जमीन बिके या जान किसी की जाय तो परवाह नही। यही है आज का भ्रष्टाचार का दंश। भ्रष्टाचारी प्रवृतियां जिसके आग में गांव शहर लोग जल रहे है।
अब कुछ ऐसे भी सवाल है जिसको चेतन पर लाना भी आवश्यक है।
1. भ्रष्टाचार की अचेतन बातें: भ्रष्टाचार मन मे दमित इच्छाओं की परोक्ष अभिव्यक्ति है जो बदलते समय व परिस्थितियों में रंग अपना दिखलाता जा रहा है। यह उस अंतर्द्वंद्व की परिणति भी है जिसे इड (आनंद के नियम पर चलने वाला) ने अपनी चाहत के साथ पूरा करने की जिद्द बनाता है।
कौन करता है?: यह वह अप्रसन्न मन करता है जो संतोष की परिधि से बाहर मानकों से विपथ झूठी शान शौकत व प्रशंसा की जिंदगी जीने का मनोविकारी किस्म का असहनाभूतिक किस्म का सामाजिक प्राणी होता है।
क्यो करते है? : उत्तर होगा अपनी मनोविकारी भावना को संतुष्टि प्रदान करने के लिए। अपने व्यामोही मन को सबल बनाने के लिए। अंतर्द्वंद्व को एक किनारा प्रदान करने के लिए।
ये अंतर्द्वंद्व क्यो और कैसा?: यह अंतर्द्वंद्व उस चेतन व अचेतन सोच का है जिसमें शक्ति सम्पन्न चाहते है कि उसकी प्रभुता कालांतर की तरह समाज मे यूँ ही सदियों कायम रहे। जबकि सामाजिक प्रभुत्वविहीन लोग उस ‘ भ्रमित शक्ति’ को बराबरी का टक्कर देने के लिए उन पदचिन्हों पर चलने की जुर्रत में उत्पन्न हुआ अंतर्द्वंद्व है जिसका खामियाजा समस्त को उठाना पड़ता है चाहे वो किसी भी वर्ग से ताल्लुकात क्यो ना रखते हों।
प्रभाव-प्रसार: छुआछूत रोग की तरह यह देखादेखी के लक्षणो का भी शिकार हो चला है। आज हर क्षेत्र में बड़े शहर के अफसर नेता से लेकर गांव देहात में स्थांतरित चपरासी व किरानी सभी घुस की मांग करते है। काम चाहे कितना भी छोटा क्यों ना हो। बिना पैसे के ना तो फाइल हिलती व जगह तक पहुंचती है बल्कि चक्कर भी खूब लगाना पड़ता है। इसमें किसी की जान जाय तो जाय कोई फड़क नही पड़ता है।
रोग या अपराध: संवैधानिक दृष्टि से भ्रष्टाचार को अपराध की संज्ञा दिया जाता है। लेकिन यह अपराध के साथ उस नशा व्यसन रोग की तरह है जिसके ना मिलने से मन बेचैन रहता है। उम्मीद में पाने तक अस्थिरता बनी रहती हैं।
क्या हो व कैसा हो निदान : इस बारे में सरकारी मंशा व प्रशासनिक हस्तक्षेप की लोग बात सोचते है और करते है। सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक में भले सख्ती ला दे मगर इन प्रवृतियों पर कैसे अंकुश लगे जिसके अंतर्द्वंद्व से इतना भ्रष्टाचार फैल रहा है। उस मन को प्रसन्न करने की रणनीति क्या हो जो असंतुष्टि को जन्म ना दे। वह कौन-सा रामबाण हो जिससे शक्ति व प्रभुत्व की बाते लोगों को ओछी लगे और लोग व्यामोह से बाहर आकर सामाजिक समरस, आपसी विश्वास व प्रेम की तनावविहीन जिंदगी जी सके। जनता की वैसी क्या सार्थक व यथार्थ पहल हो भ्रष्टाचार का नाश हो जाय। उसकी होलिका दहन हो जाय।