लेखक : डॉ विनोद कुमार शर्मा,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
निदेशक, मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनोविज्ञान विभाग,
एस पी कॉलेज, दुमका।
झारखण्ड देखो :विश्व संक्रमित कोरोना वायरस ने लोगो की नींद उड़ा दी है। चीन में शुरू यह वायरस देखते-देखते लाखों लोगों को अपने मौत के चपेट में ले लिया। कितनों को संभलने का मौका तक नही दिया। ये दर्दनाक व भयावह तो जरूर है । मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की कुछ टिप्स को अपनाकर हम ना केवल इसके दुष्प्रभाव से बच सकते है बल्कि लोगों को बचा भी सकते है। और जिसका प्रभाव कुछेक दिनों में गर्मी ढलते ही काफी हदतक दूर भी हो सकता है। वातावरण को स्वच्छ रख दिलोदिमाग से डर व तनाव को खत्म किया जा सकता है।
चलिए इस बात की खुशी है कि ये कोरोना आज नही तो कल नियंत्रण में अवश्य आ जायेगी। इसे रोग इतिहास के पन्नो में दफना भी दिया जा सकता है।
मगर बिडंबना इस बात की है कि देश दुनिया मे कोरोना से भी घातक लाइलाज बीमारी भ्रष्टाचार रोग है । जिसका चिंता इस बात का हरदम रहता है कि इसका समाधान कैसे हो , किस प्रकार हो कि इसे सदा के वास्ते जड़ से उखाड़ फेंक दिया जाय।
कोरोना का प्रभाव घातक है। मगर असर प्रभावित लोगों तक ही सीमित है। मगर भ्रष्टाचार की कोरोना वर्षो से जिंदगी को दीमक की तरह अरमानो को, भावनाओं को व खुशियों को क्रमशः चाट खा जा रही है। भीतर-ही-भीतर खोखला बना दे रही है। कहना ना होगा भ्रष्ट कोरोना की व्यापकता इसी बात से लगाया जा सकता है कि जन्म से लेकर अंतिम संस्कार तक भ्रष्टाचार का दर्शन होता है चाहे वह बातें अच्छे डिलीवरी के लिये डॉक्टर व मेडिकल स्टाफ को अतिरिक्त पैसा बकसिस के रूप में दे या उत्तम तरीके से संस्कार कराने में घुस दे। या देवालयों में माथा टेकने के एवज में पैसा दे। सब जगह पैसा बोलता है। घुस की बोली लगती है। टेबल-दर टेबल फाइलों में हिसाब होता है। टॉप टू बॉटम भ्रष्ट आचरण है। इसलिए ग़ालिब हम शर्मिदा है कि भ्रष्टाचार यहां-वहां स्कूल, दफ़्तर राजनीतिक गलियारों में अब भी जिंदा है।
हम इस चीनी कोरोना से एक बार मर सकते है मगर इस भ्रष्टाचारी कोरोना से जीवन भर मरते है। यूँ कहे तिल-तिल कर जलते है। आज जीवन का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र होगा जहां भ्रष्टाचारी कोरोना ने अपना सिक्का ना जमाया हो। शिक्षा के क्षेत्र में कहे तो यह भ्रष्ट कोरोना वायरस प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा में पीएचडी की डिग्री लेने तक अपना प्रभाव प्रसार बना रखा है। मन चाहा अधिकारी बनना हो या बिना उचित क्षमता व अहर्ता के भी मनोवान्छित नौकरी पाना हो तो लोग स्वतः भ्रष्ट कोरोना को जमी पर उतार देने को आतुर दिखते है। पहुंच पैरवी लगते है।
इतना ही नही राजनीति क्षेत्र में जनता से वोट लेना हो, ठेकेदारी लेना हो, स्वास्थ्य लाभ लेना हो, मंदिरों में पूजा करना हो, या फिर सच्चाई की जीत भी करानी हो तो भी लोग भ्रष्ट कोरोना का शिकार होते है। इस तरह लोग बेमौत मरते है और मर भी रहे है।
इन विन्दुओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि डाले तो साहस मन मे कई प्रश्न उठते है कि क्या इस भ्र्ष्टाचारी कोरोना को कंट्रोल करने के वास्ते नेक नियति वाला कोई प्रभावकारी दवा या टिका विकसित करने की आवश्यकता नही है? क्या हमारी प्रतिबद्धता इतनी कमजोर है? क्या लोग हमारे भाई-बंधु नही है? मानव प्रेम की संवेदना मृत प्राय हो चली है ? क्या हम मानवता के पक्षधर नही रहे? क्या हमारी मानवीय संवेदना शून्य व स्वार्थी है? क्या लोग पाशविक प्रवृत्तियों के हो चले है? क्या बिना परिवार व समाज के जीने की चाह रखते है? क्या अकेले ही बिना दूसरे के सहयोग के जिंदगी जीने की प्रबल सोच बना रखी है?
बातें उन ओछी मानसिकता के शब्दकोश में होती है तो हो। कोई एतराज नही। पर इतना तो तय बात है कि अगर मानव प्रेम है। परिवार व समाज का सुखद स्वप्न है तो इस भ्रष्टाचार कोरोना को सफाया करना समय रहते आवश्यक है नही तो यह देखते-देखते यह जीवन के अस्तित्व के लिए संघर्ष में बदल जायेगा। कहना ना होगा यही नकारात्मक सोच रहा तो वो दिन दूर नही जब लोग रोटी के एक टुकड़े के लिए या फिर जिंदगी जीने के लिए एक दूसरे का दुश्मन बनेंगे। फिर क्या शेष रह जायेगा? किसके लिए जीना और क्यो जीना वाली बातें ही जाएगी। तब खुद आत्महत्या भी करेंगे। इसलिए सोचने की सख्त जरूरत है। जरूरत है उस कोरोना के साथ इस कोरोना के बारे में भी उतनी ही गंभीरता के साथ सोचने की। ठोस व यथार्थ कदम उठाने की । तभी हम सतत विकास के प्रण को पूर्ण करने में अपने को सक्षम साबित कर सकेगें। वरना बातें सुर्खियों की सारी बेईमानी होगी।