संताल विद्रोह : 1855-1856 विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यवाद को सबसे बड़ी चुनौती  एक समीक्षात्मक विवेचना

डा.दिनेश नारायण वर्मा,इतिहासकार  

झारखण्ड देखो डेस्क :शोषण,दमन और उत्पीड़न के गर्भ से प्रस्फुटित संताल विद्रोह 1855-1856 विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यवाद को सबसे बड़ी चुनौती थी। 19वीं शताब्दी में किसी भी देश में विदेशी शासन के खिलाफ संताल विद्रोह के पूर्व इतना बड़ा सशक्त,संगठित और सशस्त्र जन आन्दोलन नहीं हुआ था। इसलिए 

विश्व के कई देशों में इसकी चर्चा हुई और विश्व के  अधिकांश देश इस विद्रोह से व्यापक रूप से प्रभावित हुए। इस विद्रोह ने वैश्विक  स्तर पर पहली बार यह जानकारी दी कि भारत के जनजातीय, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों में साम्रज्यवाद के खिलाफ जमीनी स्तर पर गहरा असंतोष व्याप्त था और इसके जड़ोन्मूलन के लिए वे एकजुट हो गये थे। यह एकजुटता अहिंसात्मक नहीं थी,उनका प्रतिवादअहिंसात्मक नहीं था क्योंकि अपनी आजादी के लिए उन्होंने सशस्त्र संघर्ष करने का शपथ ले लिया था। इस तरह का शपथ 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में विश्व में किसी देश के नागरिकों ने साम्राज्य के खिलाफ एकजुट होकर सम्मिलित रूप से नहीं लिया था। यह संताल विद्रोह की ऐतिहासिक विशिष्टताओं में शीर्ष पर है। इसके लिए भारत में साम्राज्यवाद को भारी कीमत चुकानी पड़ी   और बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई करने के लिए विवश होना पड़ा। इसके बावजूद इस विद्रोह से पूरा देश व्यापक रूप से प्रभावित हुआ और साम्राज्यवादियों के सैनिक और असैनिक अधिकारियों के अपराजेय होने का मिथक तोड़ दिया। अपने पारम्परिक हथियारों से विश्वे  सबसे बड़े साम्राज्यवाद को सशस्त्र चुनौती देकर जनजातीय, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों ने एक अद्भूत मिशाल कायम की और उस क्षेत्र में आजादी का परचम लहराया जहां के लोग राजनीतिक रूप से  एकदम अपरिपक्व थे। उन्हें किसी प्रकार की राजनीतिक शिक्षा नहीं दी गयी थी। उन्हें किसी प्रकार के सैन्य प्रशिक्षण का भी अनुभव नहीं था। इस विद्रोह ने 

वैश्विक  स्तर पर “गोरे लोगों के बोझ” से जुड़ी अवधारणा की इसके प्रचारित और स्थापित होने से पहले ही इसकी पोल खोल दी और ऐसी मानसिकता पर जबरदस्त प्रहार किया। इसकी गूंज काफी दूर तक सुनाई पड़ी और देश के लोगों की 1857 के विद्रोह में असफलता के बावजूद संताल विद्रोह के संदेश आगामी वर्षों में सम्पूर्ण भारतीय क्षितिज पर प्रचारित और प्रसारित हो गये। इस प्रचार और प्रसारण से भारतीय इतिहास में संताल विद्रोह की ऐतिहासिक महत्ता और अलग पहचान स्थापित हो गयी।    

     इस प्रकार भारत में कम्पनी शासन के अधीन 1857 के विद्रोह के पूर्व विद्रोहों की श्रृंकला में  संताल विद्रोह एक बड़ी राजनीतिक घटना थी। इसने तत्कालीन बंगाल सूबा के एक बड़े भू-भाग पर कम्पनी शासन की नींव हिला दी और केवल कम्पनी के सैनिक और असैनिक अधिकारियों को ही नहीं बल्कि तत्कालीन विश्व के  अधिकांश शासकों, नीति- निर्धारकों और राजनीतिज्ञों को अचम्भित कर दिया। विदेशी शासन के कर्णधारों को इसकी भनक तक नहीं लगी और जब इसका प्रस्फुटन हुआ तो यह शीघ्र ही सैनिक और असैनिक अधिकारियों के नियंत्रण से बाहर हो गया और आज के तीन राज्यों (पश्चिम बंगाल,बिहार और झारखंड) के एक बड़े सीमावर्ती इलाके में तेजी से प्रसारित हो गया। हालाँकि कम्पनी के सैनिक और असैनिक अधिकारी इसका क्रूरतापूर्वक दमन करने में कामयाब हो गये पर इस विद्रोह ने अपनी अमिट छाप छोड़ी और एक बड़ी अविस्मरणीय ऐतिहासिक घटना के रूप में आधुनिक इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गयी। इसके नायक सिदो और कान्हू परवर्ती काल में विदेशी शासन से संघर्ष करने वालों के लिए प्रेरणा के अथाह रुाोत बन गये। अपनी शहादत से इन क्रांति वीरों ने भारतीयों को स्वतंत्रता की राह दिखाई और उनके दिलों और दिमाग में कभी न मिटने वाली छाप छोड़ी।

     विदेशी शासन के खिलाफ देश में इतना बड़ा संगठित और सशक्त विद्रोह इसके पूर्व नहीं हुआ था। पलासी 1757 और बक्सर 1764  के युद्धों के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों में कम्पनी शासन के खिलाफ लगातार विद्रोहों की एक लम्बी श्रृंखला है और इस श्रृखंला में संताल विद्रोह की एक अलग पहचान है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इसकी  अनेक जमीनी  विशिष्टताओं के आलोक में यह भारत की पहली जन क्रांति ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण एशिया महादेश का सबसे बड़ा जन-आन्दोलन भी था।इसमें संतालों के अलावा अन्य जनजातियों समेत हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के पिछड़ों और दलितों के बड़े पैमाने पर शामिल होने से देश के आधुनिक इतिहास में इसकी एक अलग पहचान विकसित हुई। इसके लिए कई कारण उत्तरदायी हैं पर जमीनी स्तर पर इसके दो कारण निम्नलिखित थे—इसके क्रांतिकारियों की लड़ाई महज विदेशियों को देश से बाहर निकालने तक ही सीमित नहीं था बल्कि वे अपना राज भी स्थापित करना चाहते थे,इसके लिए उन्होंने घोषणाएं भी कीं और अपने इरादों को एकदम स्पष्ट कर दिया जिससे उन्हें सभी लोगों को अपने साथ लाने में बड़ी सहुलियत हुई और वे बड़े पैमाने पर संघर्ष करने में सक्षम हो गये, इसलिए उन्होंने विदेशी शासन के खिलाफ जन संघर्ष में सभी वर्गों को शामिल करने के लिए बड़ी

सतर्कता बरती और अपने अथक प्रयास से हिन्दू और मुसलमानों के दलित और पिछड़ों को बड़े पैमाने पर अपने साथ लाने में कामयाब हो गये। इससे उनकी ताकत बढ़ गई,उनकी संघर्ष क्षमता मजबूत हुई और उनके क्रांतिकारी सहयोगियों ने विदेशी शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का एलान कर दिया। यह दूसरा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य था जिसने संताल विद्रोह को 19वीं सदी के अन्य विद्रोहों से अलग कर दिया।    

            ऐतिहासिक दस्तावेजों से स्पष्ट होता है कि 1770 ई. के पश्चात् संतालों का इस क्षेत्र में व्यापक देशान्तर गमन हुआ और कम्पनी शासन के  अधिकारियों के प्रोत्साहन और मदद से वे आधुनिक संताल परगना के एक बड़े क्षेत्र में निवासित हो गये और इसके प्राचीनतम मूल निवासी आदिम पहाड़िया जनजाति पहाड़ों पर सिमट गये व अल्पसंख्यक हो गये। आर. एम.मार्टिन(1838),वाल्टर स्टैनहोप शेरविल (1851),इ.जी.मान(1867) विलियम विल्सन हंटर(1868.1877,1895),एडवर्ड टुइट डाल्टन (1872),एफ.बी.ब्रोडले- बर्ट (1905), एच. मैकफर्सन (1909),एम.सी.मैकआलपिन (1909), एल.एस. एस.ओ’मैली (1910),जे.एफ.गैंजर (1936) आदि साम्राज्यवादी अधिकारियों और लेखकों के अलावा के.के.बसु(1934),के.के.दत्त (1934,1940,1957,1971), एन.बी.राय (1960,1961) पी.सी. रायचौधरी (1962,1965) आदि कई भारतीय लेखकों ने भी संतालों के देशान्तर गमन का विस्तृत विवरण लिखा और ऐतिहासिक तथ्यों के आलोक में स्पष्ट किया कि जमींदार,महाजन, पुलिस, रेवेन्यू और न्यायिक कर्मचारियों की आपसी मिलीभगत से तत्कालीन अविभाजित बंगाल का जनजातीय, दलित और पिछड़ा वर्ग विगत कई वर्षों के पीड़ित और प्रताड़ित था। इस जमीनी हकीकत के फलस्वरूप इस विद्रोह में संतालों के अलावा पहाड़िया,ग्वाले,हरिजन,डोम,कुम्हार,तेली, लोहार,जुलाहे, चमार,कहार,नाई, धांगड़, कोल,भुइयां,रजवाड़,माल,मल्लाह,भोवजा,धानुक,तांती,मोमिन आदि वर्ग के लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए और हूल में बड़ी प्रभावशाली धरातलीय भूमिका निभायी। इसलिए संताल विद्रोह के नायक- सिदो,कान्हू,चांद और भैरब केवल आदिवासियों के ही नहीं बल्कि पिछड़े और दलित लोगों के भी सर्वमान्य नायक थे। यह भी उल्लेखनीय है कि इसके नायकों का आविर्भाव जनता में से हुआ था जो स्वयं भी विद्रोह करने के लिए उत्तेजित थी। इस विद्रोह का कोई भी नायक किसी मध्यम वर्ग या किसी उच्च वर्ग से नहीं था। इसके सभी  नायक जनजातीय,दलित और पिछड़े वर्गों में से ताल्लुक रखते थे जिन्होंने तत्कालीन वि·ा की सबसे बड़ी ताकत के खिलाफ धरती पुत्रों की अगुवाई की और अपनी आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष का आह्वान किया।

            इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह संतालों का सबसे बड़ा विद्रोह था और इसमें संतालों की महत्वपूर्ण और केन्द्रीय भूमिका थी। महाजन,जमींदार और ब्रिाटिश सरकार के पुलिस और न्यायिक कर्मचारियों और अधिकारियों से मूल रूप से संताल सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुए थे। उन पर महाजनों का अमानवीय अत्याचार दिन पर दिन बढ़ता गया और उन पर हर साल चुकता करने के बाद भी उन पर कर्ज को बोझ कभी खत्म नहीं हुआ। (डब्ल्यू.डब्ल्यू.हंटर,ए ब्राीफ हिस्टरी आप द इंडियन पियुपल्स, रिपिं्रटेड,नई दिल्ली,2012) उनकी महिलाओं के साथ भी ज्यादा अत्याचार,अपहरण और बलात्कार की घटनाएं हुए थीं। तत्कालिन समाचार पत्रों में इस तरह की कई घटनाओं का उल्लेख है जिससे संताल काफी उत्तेजित हो गये थे और दोषियों को पकड़ कर मार डाला था। इसलिए उनमें असंतोष और विद्रोह की भावना अधिक थी। इस ऐतिहासिक तथ्य को सिदो और कान्हू ने बड़ी अच्छी तरह से परख लिया था और व्यवहारिक रूप से इसे महसूस भी किया था क्योंकि उनकी भी जमीन और खेत महाजनों ने हथिया ली थी और वे बेघर हो गये थे। अत: उन्होंने स्वराज्य की दुहाई देकर अन्य जनजातियों,पिछड़ों और दलितों का समर्थन प्राप्त कर लिया।यह काफी महत्वपूर्ण है कि उनका गांव भी सूदखोरों और जमींदारों से काफी प्रताड़ित हुआ था। उनके जन्म स्थान भगनाडीह में उनके पिता की पैतृक भूमि सूदखोरों ने हड़प ली थी। इस प्रकार अत्याचार और उत्पीड़न को उन्होंने काफी नजदीक से देखा और वे स्वयं भी

इनसे प्रताड़ित हुए थे। इसलिए वे विदेशी शासन से मुक्त होना चाहते थे और गरीब वर्गों का राज स्थापित करना चाहते थे। संतालों में प्रचलित आम धारणा के अनुसार वे दैवीय शक्ति से प्रेरित हुए थे। इस आम धारणा के अनुसार संतालों के सबसे बड़े देवता मरागंबुरू ने सिदो और कान्हू को दर्शन दिया था और आदेश दिया कि वे संतालों को शोषण और उत्पीड़न से मुक्त करें और संतालों का राज स्थापित करें।

   यहां यह बताना समीचीन जान पड़ता है कि जनजातियों के अधिकांश आन्दोलन का स्वरूप मसीही होता था और अपने सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक आदि सभी प्रकार की समस्याओं के निराकरण के लिए वे किसी मसीहा के आविर्भाव की परिकल्पना करने लगते थे। वे उन्हें दैवीय और चमत्कारिक शक्तियों से सम्पन्न मानने लगते थे। इस प्रकार वे धार्मिक दृष्टिकोण से भी एकजुट हो जाया करते थे। संताल विद्रोह में भी जनजातियों ने अपने उद्धारक के आगमन की परिकल्पना की और इसके नायकों का आविर्भाव उनके उद्धारक के रूप में हुआ। इस तथ्य की विस्तृत विवेचना इतिहासकार के.के.दत्त (द संताल इनसरेक्सन ऑफ 1855–57,कलकत्ता वि. वि.1940) के पश्चात् प्रसिद्ध विद्वान लेखक स्टेफन फ्यूक्स ने भी की है। (स्टेफन फ्यूक्स, रेबेलियस प्रोफेट्स,बम्बई,1965) यहां इतना ही बताना यथेष्ट है कि इस परिकल्पना से उत्पन्न जनजातियों की एकजुटता ने उन्हें वह सामूहिक ताकत प्रदान की कि जिसने तत्कालीन वि·ा की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत को इसकी औकात बता दी और अपने सशस्त्र संघर्ष में उन्होंने साम्राज्यवादियों के कई सैनिक अधिकारियों को मार डाला और कई स्थानों में हुए संघर्ष में उनकी सेना को पराजित कर दिया।    

            यह उल्लेखनीय है कि संताल परम्परागत रूप से स्वतंत्र और स्वछन्द रहे हैं। उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति में ही नहीं बल्कि अपने जागीरों में भी बाहरी हस्तक्षेप को कभी बर्दाश्त नहीं किया। इसलिए जब उन्हें सूदखोरों और जमींदारों ने अपना बन्धुआ मजदूर बना लिया और उनकी आजादी का हनन कर लिया तो वे एक बार फिर से अपनी स्वतंत्रता सम्बन्धी पारम्परिक भावना से प्रेरित हुए और अपना संगठन बनाने लगे। इसलिए अपने स्वराज की स्थापना के विचार से प्रेरित होकर संतालों ने सिदो और कान्हू को अपना नेता स्वीकार कर लिया और वे पुराने दिनों की कल्पना करने लगे जब वे किसी के अधीन नहीं थे और पूरी तरह से स्वतंत्र थे एवं उन्हें किसी प्रकार का कर भी नहीं देना पड़ता था। इस ऐतिहासिक तथ्य को ब्रिाटिश लेखक और अधिकारी मैकफर्सन ( द फाइनल रिपोर्ट आन द सर्वे एंड सेटलमेंट आपरेशन्स इन द डिस्ट्रिक्ट ऑफ संताल परगनाज,कलकत्ता, 1909) ने साम्राज्यवादी नजरिये से स्पष्ट करते हुए लिखा है कि संताल साधारणतया शान्त और संतुष्ट प्रकृति के होते हैं,पर जब उनके दिमाग में कोई शिकायत खटकने लगती है,तो उनमें असन्तोष उभरता है ऐसे में उनके नेता या स्वार्थी आन्दोलनकारी जनजाति की प्राचीन परम्पराओं की दुहाई देते हैं और स्वतंत्रता की उम्मीद करते हैं। अपने नायकों के आदेश पर उन्होंने अपने गांवों का व्यापक शुद्धिकरण किया और एकजुट होने लगे। इसके बावजूद विद्रोह की शुरुआत नहीं हुई क्योंकि सिदो और कान्हू ने अपनी समस्याओं का निराकरण शान्तिपूर्वक तरीके से करने की घोषणा की।  

            सिदो और कान्हू ने स्थानीय अधिकारियों को आवेदन दिये पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी। इस तरह के कई आवेदनों का उल्लेख ऐतिहासिक दस्तावेजों में है। दामिन -इ -कोह के अधीक्षक और भागलपुर के कमिश्नर से भी उन्होंने और उनके निर्देश पर उनके सहयोगियों ने अपनी शिकायतों को दूर करने का निवेदन किया।(कलकत्ता रिव्यू,1856) पर इन अधिकारियों ने कुछ नहीं किया। इससे संताल काफी उत्तेजित हुए और कम्पनी शासन के अधिकारियों के खिलाफ उनमें असंतोष और आक्रोश अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। इसके फलस्वरूप कम्पनी के सिविल और सैन्य अधिकारियों को वह सब कुछ झेलने के लिए विवश होना पडा जिसकी उन्हें कभी उम्मीद नहीं थी। प्रख्यात लेखक स्टेफन फ्यूक्स (1965) के अनुसार उन्होंने कलकत्ता  में गवर्नर-जनरल से व्यक्तिगत रूप से मिलने के लिए

“कोरपोरेट मार्च ” का कार्यक्रम बनाया और संतालों को एकत्रित होने का निर्देश जारी किया। उनके आह्वान पर संतालों की एकता का प्रतीक साल वृक्ष की शाखा विभिन्न गांवों में घुमायी गयी। इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप 30 जून,1855 को लगभग चार सौ गांवों का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग दस हजार संताल भगनाडीह (बरहेट प्रखंड,जिला साहिबगंज,झारखंड ) में जमा हुए। संतालों की इस विशाल सभा को सिदो और कान्हू ने सम्बोधित किया और संतालों पर होने वाले अत्याचारों और उत्पीड़नों की जानकारी दी। इससे सभा में उपस्थित सारे लोग उत्तेजित हो गये,आक्रोशित हो गये और समवेत स्वर में उन्होंने “करो या मरो” के महामंत्र को स्वीकार कर लिया। पर उनके लिए कलकत्ता पहुंचना आसान नहीं  था। शीघ्र ही उनका रसद भी समाप्त हो गया। इससे वे आसपास के बाजारों को लूटने लगे। कुछ स्थानों पर डकैतियां भी हुर्इं जिसे कलकत्ता रिव्यू 1856 ने संतालों पर होने वाले अत्याचारों का उचित प्रतिशोध बताया।

            इन घटनाओं के फलस्वरूप पुलिस कार्रवाई अवश्यमभावी हो गयी। दिग्घी थाना में 1835 ई.से पदस्थापित दारोगा महेशलाल दत्त ने पंचकठिया में सिदो और कान्हू को गिरफ्तार करने की कोशिश की जिससे संताल काफी क्रोधित हो गये। जैसे ही दारोगा ने सिदो को गिरफ्तार करने की कोशिश की उत्तेजित और क्रोधित संतालों की भीड़ उस पर टूट पड़ी और दारोगा के दल के सिपाहियों की हत्या कर दी जबकि सिदो ने स्वयं अपने हाथों तलवार से दारोगा को मार डाला।  इसके बाद बड़े ही उत्तेजित वातावरण में उदघोष किया गया- “जुमिदार,महाजोन, पुलिस आ राजरेन अमलाको गुजुकमा ” जमींदार, महाजन और पुलिस का नाश हो )। सभा ने सर्वसम्मति से सिदो और कान्हू को अपना शासक (सूबा) नियुक्त किया। इसके बाद उन्होंने अपने अन्य कर्मचारियों को नियुक्त किया। इस प्रकार सिदो और कान्हू का सभी लोगों के सर्वमान्य नेता के रूप में आविर्भाव हुआ और उन्होंने नेतृत्व की बागडोर संभाली। संताल परगान के पूर्व उपायुक्त आर.कास्र्टेयर्स ने लिखा है कि दारोगा महेश लाल दत्त अमडापाड़ा के एक दुर्नाम महाजन केनाराम भगत के साथ चार संतालों को गिरफ्तार करके पंचकठिया होकर भागलपुर चालान कर रहा था,जहां उसकी मुठभेड़ सिदो और कान्हू के नेतृत्व में एकत्रित तीर,धनुष, कुठार, तलवार आदि से लैस क्रोधित और आक्रोशित क्रांतिकारियों से हो गई जिन्होंने यह कहते हुए उसे मार डाला कि हमारे लोगों को गिरफ्तार और चालान करने वाले तुम कौन होते हो। यदि इन्होंने कोई कसूर किया है तो इसका फैसला हम खूद करेंगे।

      प्रसिद्ध संताली लेखक सी.एच.कुमार (संताल परगना…1937) के अनुसार दारोगा के साथ ही उक्त महाजन की भी हत्या कर दी गयी और बड़े ही उत्तेजित बातावरण में यह घोषणा की गयी कि”दारोगा बानुक्कोआ,हकिम बानुक्कोआ,सरकार बानुगेया,नितोक दो होड़ होपोन रेयाक् हेच सेटेर एना “अर्थात् अब दारोगा नहीं,हाकिम नहीं,सरकार नहीं,अब हम संतालों का राज आ गया। यहां यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश शोध विद्वानों और इतिहासकारों ने संताल विद्रोह के नायकों और इसमें शामिल धरती पुत्रों की घोषणाओं और उदघोषों पर ध्यान नहीं दिया और इनकी पूरी उपेक्षा कर दी। पर ये ऐतिहासिक घोषणाएं आदि इस विद्रोह के धरातलीय स्वरूप को स्पष्ट करती हैं जिससे पता चलता है कि विद्रोहियों का एकमात्र मकसद विदेशी शासन से मुक्ति पाना और अपना स्वराज स्थापित करना था। यही इस विद्रोह का वास्तविक स्वरूप था। इसलिए इतिहासकार के.के.दत्त (1940) का कथन कि विद्रोह का शुरुआती चरित्र अंग्रेज विरोधी नहीं था से सहमत होना कठिन है। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि राजमहल की पहाड़ियों में आगमन के बाद से ही संताल समुदाय उत्पीड़न और शोषण का शिकार होने लगा था। उनकी जमीन और जंगलों पर जमींदारों और महाजनों ने बलात कब्जा कर लिया था।वस्तुत: वे जमींदार,महाजनो और सिविल व न्यायिक अधिकारियों के अपवित्र मेलजोल का शिकार हो गये थे जिन्होंने उन्हें आश्रयविहिन कर दिया था। इसलिए वे अपनी खोयी पुश्तैनी जमीन पर पुन: अधिकार करना और अपने नायक के अधीन अपना राज स्थापित चाहते थे।(पी.सी.रायचौधरी,बिहार

डिस्ट्रिक्ट गजेटियरस-संताल परगनाज,पटना,1965)जंगलों के नष्ट होने से न केवल उनकी आजीविका के पुश्तैनी साधन नष्ट होने लगे थे वरन उनकी परम्परागत रूप से स्थापित धार्मिक मान्यताएं भी नष्ट होने लगी थीं। (एन.बी.राय, न्यू आसपेक्टस..1960, मोर लाइट आन द संताल इन्सरेकशन,1961) यह उनकी सभ्यता और संस्कृति को एक बड़ी चुनौती थी। इससे पूरा संताल समुदाय चिन्तित हो गया था। इनके अलावा उनके परिवार की महिलाओं और युवतियों के साथ अभद्र व्यवहार और उनका अपहरण, शोषण,बलात्कार और हत्या से संताल समाज भीतर ही भीतर अक्रोशित और आन्दोलित हो गया था और किसी भी कीमत पर इसका बदला लेने और इस प्रकार के अनाचार का अन्त करने की शपथ ले चुका था।

            पर हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के पिछड़े और दलित वर्गों के विद्रोह में शामिल हो जाने से सभी विद्रोहियों-आदिवासी,पिछड़े और दलितों में एक प्रकार का भाईचारे का गठबन्धन कायम हो गया जिसने धर्म और जाति के सभी बन्धनों को समाप्त कर दिया। यह देश में साम्प्रदायिक एकता की अभिभूत करने वाली पहली ऐतिहासिक मिशाल थी जिसने देश में पहली बार साम्राज्यवाद की नींव हिल दी। यह पहला ऐतिहासिक अवसर था जब देश के लोग साम्प्रदायिक एकता की मजबूत और अद्भूत ताकत से अवगत हुए जिसने देश में अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को धाराशायी कर दिया। यह उल्लेखनीय है कि अंग्रेज जिन्हें असभ्य,जंगली और बर्बर बताते थे और उन्हें राजनीतिक चेतना विहिन बताते थे उन्होंने ही अपनी कौमी एकता स्थापित कर साम्राज्यवादियों को ऐसी जबर्दस्त टक्कर दी कि उनके होश उड़ गये। ये आदिवासी, पिछड़े और दलित वर्ग के लोग ब्रिाटिश  प्रशासन और इसके अधिकारियों द्वारा किये गये शोषण और अत्याचार से सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से  काफी दयनीय स्थिति थे। अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए सशस्त्र विद्रोह के सिवा उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। अत: सिदो और कान्हू के नेतृत्व में आदिवासियों,पिछड़े और दलित समुदायों का एकीकृत सशस्त्र विद्रोह फूट पड़ा और भारत में ब्रिातानी साम्राज्य के एक बड़े क्षेत्र में फैल गया। इसके फलस्वरूप झारखंड राज्य के संताल परगना और बिहार के  भागलपुर जिले के विभिन्न क्षेत्रों के साथ पश्चिम बंगाल में वीरभूम जिले(एल.एल.एस.ओ’मैली,बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियरस-वीरभूम,नई दिल्ली, 2015,रिप्रिन्ट:25-28)  के नलहाटी,रामपुरहाट,नागौर,सिउड़ी,लांगुलिया,गुरजोरी एवं अनेक स्थानों में सशस्त्र विद्रोह का स्वरूप काफी व्यापक और भयानक हो गया।

            झारखंड राज्य के साहिबगंज,राजमहल,पाकुड़,गोड्डा, महेशपुर, बरहेट,मधुपुर और दुमका और पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और वीरभूम जिलों के अनेक गांवों और शहरों में विद्रोहियों ने भारी उपद्रव किये। कई स्थानों पर सिदो और कान्हू के नेतृत्व में विद्रोहियों और अंग्रेजों में जबरदस्त लड़ाई हुई। पाकुड़ में महेशपुर के राजप्रसाद को लूटने के बाद 15 जुलाई 1855 ई. को सिदो,कान्हू और भैरब के नेतृत्व में लगभग चार हजार विद्रोहियों ने अंग्रेजी फौज के साथ भंयकर युद्ध किया। इस युद्ध में तीनो नायक जख्मी हुए और लगभग दो सौ संताल आन्दोलनकारी शहीद हो गये। 16 जुलाई 1855 ई. को पीरपैंती (भागलपुर,बिहार) के निकट प्यालापुर में संताल आन्दोलनकारियों के साथ मेजर एफ.डब्ल्यू. बरोस के नेतृत्व में कम्पनी सैनिकों की एक जबरदस्त मुठभेड़ हुई जिसमें मेजर बरोस के सैनिक हार गये। एक क्वार्टर मास्टर सर्जेन्ट,कुछ देशी अधिकारी और 25 सिपाही मार डाले गये। इससे विद्रोहियों का मनोबल काफी बढ़ गया। इस घटना का विवरण देते हुए सरकारी अधिकारी मैकफर्सन ने लिखा है कि “इसके बाद विद्रोही नियंत्रण से बाहर हो गये और उन्होंने अनेक अत्याचारी कार्य किये। बहुत सारे महाजनों की हत्या कर दी गई जिन्होंने उन्हें कई वर्षों से गुलामी की स्थिति में रखा था।”  

            पुन: 21 जुलाई 1855 ई. को पुलिस,जमींदारों और महाजनों की सम्मिलित सेना को विद्रोहियों ने पराजित कर दिया। कई सिपाहियों के साथ लेफ्टिनेण्ट टोल मेइन को विद्रोहियों ने मार डाला। इससे कम्पनी के सिविल और सैन्य अधिकारियों में हड़कम्प मच गया और वे विद्रोह का दमन करने के लिए

और अधिक बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई करने के लिए विवश हुए। दूसरी ओर इन सफलताओं से विद्रोहियों के हौसले बुलन्द हो गये। उन्होंने कम्पनी राज की समाप्ति की घोषणा कर दी और कहा कि सर्व साधारण गरीब लोगों का राज स्थापित हो गया है जबकि कम्पनी सरकार की ओर से एक घोषणा में यह कहा गया कि यदि विद्रोही आत्मसमर्पण कर दें तो नेताओं को छोड़कर सभी को माफ कर दिया जायेगा। पर किसी विद्रोही ने आत्मसमर्पण नहीं किया,डब्ल्यू.डब्ल्यू. हन्टर के अनुसार विद्रोहियों ने इस घोषणा के प्रति अपनी घृणा प्रदर्शित की,इसे पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया और अपना संघर्ष जारी रखा।(एल.एल.एस.ओ’मैली,बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियरस-वीरभूम,नई दिल्ली, 2015,रिप्रिन्ट:25-28) सिदो और कान्हू के नेतृत्व में उनका संघर्ष और अधिक व्यापक हो गया। पश्चिम बंगाल में वीरभूम जिले के लगभग आधे हिस्से पर विद्रोहियों ने अधिकार कर लिया। प्रसिद्ध इतिहासकार के.के. दत्त के अनुसार 20 जुलाई 1855 ई. तक वीरभूम के दक्षिण -पश्चिम में ग्रैंड रोड पर तालडांगा और दक्षिण-पूर्व में सैंथिया से पश्चिमोत्तर गंगा तट पर भागलपुर और राजमहल तक और भागलपुर जिले के पूर्वोत्तर तक यह विद्रोह फैल गया। इसके फलस्वरूप पश्चिम बंगाल,झारखंड और बिहार का एक बहुत बड़ा क्षेत्र इस विद्रोह से आक्रांत हो गया।

            इस व्यापक विद्रोह के कारण भागलपुर के तत्कालीन कमिश्नर ने भागलपुर,वीरभूम और राजमहल में एक साथ सैनिक कार्रवाइयों द्वारा विद्रोह को कुचलने की विस्तृत योजना बनायी। पर विद्रोह की व्यापकता और जन स्वरूप के फलस्वरूप तत्काल कुछ नहीं किया जा सका। कई जमींदारों से सहयोग लिया गया और मेजर शकवर्ग और कैप्टेन फ्रांसिस ने अपने अभियान तेज कर दिये। कैप्टेन शेरविल अपने सैनिकों को लेकर मेजर शकवर्ग के साथ शामिल हो गये। बिहार के दानापुर से अतिरिक्त फौज मंगायी गयी। जुलाई 1855 के अन्त में जन विद्रोह काफी व्यापक हो गया और एक बड़े क्षेत्र में फैल गया। मेजर जनरल लॉयड ने सैनिकों की कमान संभाली और सुरक्षा की विस्तृत व्यवस्था की। बहुत बड़ी संख्या में विद्रोहियों के गांव नष्ट किये जाने लगे। मुर्शिदाबाद के मजिस्ट्रेट ने रघुनाथपुर में चांद और भैरब को पराजित कर दिया तथा विद्रोहियों के प्रधान गढ़ बरहेट (साहिबगंज,झारखंड) पर अधिकार कर लिया। दूसरी ओर विद्रोहियों ने जुलाई (1855) में वीरभूम जिले को तहस-नहस कर दिया। इसके फलस्वरूप पश्चिम बंगाल में नदिया डिविजन के कमिश्नर ए.सी.बिडवेल को विद्रोह के दमन के लिए स्पेशल कमिश्नर नियुक्त किया गया। पर अक्टूबर 1855 ई.में विद्रोह पुन: तेजी से फैला। विद्रोहियों ने कई स्थानों पर भारी उपद्रव किए। विद्रोह के नायकों की अगुवाई में विद्रोहियों ने कम्पनी सरकार के सैनिक और असैनिक अधिकारियों को खुली चुनौती दी। अत:विद्रोहियों को कुचलने के लिए पुन: विशेष उपाय किये गये और 10 नवम्बर 1855 को मार्शल कानून की घोषणा कर दी गयी। (एल.एल.एस.ओ’मैली,बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियरस-वीरभूम,नई दिल्ली, 2015,रिप्रिन्ट:25-28)

            इसके बाद विद्रोह के बड़ी तेजी से दमन किया गया। बहुत बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान किये गये,गांव के गांव जला डाले गये और विद्रोहियों का बड़ी क्रूरतापूर्वक दमन किया गया। साम्राज्यवादी अंग्रेज लेखक एफ.बी.ब्रोडले-बर्ट के अनुसार इस विद्रोह में लगभग दस हजार संताल मारे गये। पर विद्रोह की व्यापकता और दमन चक्र के आलोक में यह कहा जा सकता है कि कम से कम तीस-पैंतीस हजार विद्रोही शहीद गये होंगे। एक विश्वास घाती  (तुलसी संताल और अन्य-कलकत्ता रिव्यू 1856)के कारण अंग्रेज अधिकारी विद्रोह के शीर्ष नायक सिदो को पकड़ने में कामयाब हो गये। दामिन-इ- कोह के अधीक्षक जेम्स पोन्टेट ने भोगनाडीह में सिदो को फांसी दे दी।

            सरकारी लेखक एल.एस.एस.ओ’मैली (बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियरस-संताल परगनाज,पटना, 1938) के अनुसार 24 जुलाई 1855 ई. को जब ब्रिाटिश सैनिकों ने बरहेट पर कब्जा किया था,सिदो को उसके कुछ साथियों ने  

विश्वास घाती कर भागलपुर से सैनिकों को सुपुर्द कर दिया। कलकत्ता रिव्यू के आधार पर (1855,पृ.247) विद्वान रंजन गुप्ता ने लिखा है कि तुलसी संताल और कुछ अन्य के द्वारा विश्वास घाती कर सिदो को भागलपुर के सैनिकों के हवाले कर दिया गया। विश्वासघातियों को उनके साथी जनजातियों द्वारा शीघ्र ही कत्ल कर दिया गया जबकि उनके महानायक सिदो को पोन्टेट के द्वारा भगनाडीह में अनेक संतालों और अन्य समुदायों की उपस्थिति में एक महुआ पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी। प्रसिद्ध बंगाली लेखक गौरीहर मित्र ने अपनी पुस्तक में यही विवरण लिखा है।

            कुन्जरा के सरदार घटवाल की मदद से उपरबन्धा के निकट कान्हू को भी अंग्रेज गिरफ्तार करने में सफल हो गये। कान्हू को भी भगनाडीह ले जाकर सार्वजनिक रूप से फांसी दे दी गयी। चांद और भैरब भागलपुर के पास घमासान युद्ध में शहीद गये। इस प्रकार उन्होंने गरीब लोगों का राज स्थापित करने के लिए ब्रिाटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने परम्परागत हथियारों से सशस्त्र संघर्ष किया और संघर्ष करते हुए शहीद हुए। सरकारी लेखक मैकफर्सन द्वारा लिखित सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरकार द्वारा पहले इन्कार किये जाने के बाद 10 नवम्बर 1855 को भागलपुर, मुर्शिदाबाद और  वीरभूम जिलों में मार्शल कानून घोषित किया गया। जनरल लॉयड और ब्रिागेडियर वर्ड के अधीन आठ हजार सैनिक विद्रोह से अशांत क्षेत्र में भेजे गये और वर्ष 1855 ई. के अन्तिम दिन सरकारी तौर पर विद्रोह का पूरी तरह से दमन किये जाने की घोषणा की गयी।  सरकारी लेखक मैकफर्सन के अनुसार 3 जनवरी 1856 को मार्शल कानून समाप्त कर दिया गया।

      सिदो,कान्हू,चांद और भैरब की शहादत के बाद उनके सिपाहसालारों साम परगना,गारमू परगना, हाड़मा परगना,आदि ने जन विद्रोह की मशाल को जलाये रखा और विद्रोहियों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। पर फरवरी 1856 ई.तक सत्ता,शक्ति और शस्त्र के बल पर कम्पनी सरकार ने विद्रोहियों का पूरी तरह से दमन कर दिया और बड़ी संख्या में विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया। ओ’मैली ने यह भी लिखा है कि संतालों ने असाधारण साहस का भी प्रदर्शन किया। एक मिट्ट की झोपड़ी में 45 संतालों ने शरण लिया था। उन पर गोलियों की बौछार की गयी और प्रत्येक बार उन्हें क्षमादान दिया गया,लेकिन प्रत्येक बार संतालों ने तीरों से जबाव दिया। अन्त मे जब उनके तीर आने बन्द हो गये तो सेना के जवान झोपड़ी के अन्दर गये और पाया कि केवल एक आदमी जीवित है। एक सैनिक ने उसे हथियार डालने के लिए कहा तब वह एकाएक उस पर टूट पड़ा और अपनी कुल्हाड़ी से उसे काट  डाला। संतालो के विरुद्ध सेना के कुछ जवानो के कमान्ड करने वाले मेजर जर्विस ने इस संघर्ष का वर्णन किया है जिससे इस संघर्ष का सामान्य स्वरूप स्पष्ट होता है।

            इस व्यापक जन विद्रोह में अनुमानत: पचास हजार लोग शामिल हुए थे जिन्होंने छह महीने से भी अधिक की अवधि तक कम्पनी सरकार और इसके सैनिक और असैनिक अधिकारियों का सशस्त्र प्रतिवाद किया और हथियार नहीं डाले । अत: इस जन विद्रोह के दमन में कलकत्ता,बरहमपुर,सिउड़ी, रानीगंज,देवघर,भागलपुर, पूर्णिया,मुंगेर,बाढ़ और पटना आदि विभिन्न केन्द्रों से सैनिकों को बुलाना पड़ा और सरकारी अधिकारियों को बहुत अधिक सशस्त्र संघर्ष करना पड़ा। यह आन्दोलन इतना व्यापक होगा और बड़ी तेजी से एक बड़े इलाके में फैल जायेगा इसकी कल्पना ब्रिाटिश अधिकारियों को नहीं थी। वस्तुत: 19वीं शताब्दी की एशिया की यह सबसे बड़ी जनक्रांति थी जिसने अपनी तेजी,व्यापकता, जुझारूपन आदि से अंग्रेज अधिकारियों को हतप्रभ कर दिया था। इतना ही नहीं इस आन्दोलन ने अन्तर्राष्ट्रीय जगत का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। अपनी प्रसिद्ध रचना “नोट्स आन इंडियन हिस्ट्री” में इस विद्रोह का उल्लेख करने वाले प्रसिद्ध विद्वान कार्ल माक्र्स ने संताल हूल को भारत की पहली जनक्रांति बताया था। उन्होंने इस पुस्तक में इस विद्रोह की चर्चा करते हुए कहा कि सात महीने लगातार छापामार युद्ध के बाद सन् 1856 ई.के विद्रोह को दबाया जा सका।

            इस विद्रोह के फलस्वरूप साम्राज्यवादी शासकों ने प्रशासनिक व्यवस्था में भी कई परिवर्तन किये। 22 दिसम्बर 1855 ई. के एक्ट 37 के द्वारा दामिन- इ-कोह और इसके आस-पास के क्षेत्रों को

भागलपुर,वीरभूम और मुर्शिदाबाद जिलों से अलग कर एक स्वतंत्र रेगुलेशन जिला बनाया गया।(रार्बट कार्सटेयर्स,द लिटिल वल्र्ड आफ एन इंडियन डिस्ट्रिक्ट आफिसर,लंडन,1912,) इसमें चार उप जिले यथा-दुमका, देवघर,गोड्डा एवं साहिबगंज बनाये गये। इस नये जिले का मुख्यालय दुमका बनाया गया। इस प्रकार प्रारम्भ में इस पूरे जिले को नन-रेगुलेशन जिला कहा गया। पर इसमें संताल परगना शब्द का कहीं उल्लेख नहीं था। दि अमेंडिग एक्ट 1903 (1) के द्वारा इसमें संताल परगना शब्द जोड़ा गया। फलस्वरूप एक्ट आफ 1855 परिवर्तित होकर “दि संताल परगना एक्ट 1855” हो गया।

            इस विद्रोह का एकमात्र स्मारक पाकुड़ जिला मुख्यालय (पाकुड़) में स्थित मारटेलो टावर है (30 फूट ऊँचा और घेरा 20 फूट)। इसे ब्रिाटिश अधिकारियों ने क्रांतिकारियों से अपनी रक्षा के लिए बनवाया था। इसी टावर के अन्दर से धोखा देकर एवं अंधाधुंध गोलियां चलाकर अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को परास्त करने की साजिश की थी। इससे बहुत से क्रांतिकारी शहीद हो गये पर किसी के द्वारा आत्मसमर्पण किये जाने का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। यह संताल हूल के नायकों की संगठनात्मक ताकत और उनके सहयोगियों की अपने नायकों के प्रति अप्रतिम लगाव और अपनी आजादी के लिए मर मिटने की एकजुटता का ऐतिहासिक उदाहरण है। उनकी वीरता और बहादुरी उल्लेखनीय थी जिसकी चर्चा अंग्रेज सैनिक और असैनिक अधिकारियों ने भी की।यह इन नायकों की शहादत और उनके व्यक्तित्व का ही अमिट प्रभाव था कि झारखंड राज्य के लोगों ने विदेशी शासन के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बजाय स्वतंत्रता संघर्ष में अपने प्राणोत्सर्ग करना ज्यादा बेहतर समझा। जिस राष्ट्रीय संघर्ष का आह्वान महात्मा गांधी ने बम्बई में 8 अगस्त 1942 को किया था उसी प्रकार के संघर्ष की शुरुआत सिदो और कान्हू ने 30 जून 1855 को भगनाडीह (बरहेट प्रखंड, साहिबगंज,झारखंड) में किया था।

            यह ध्यान देने की बात है कि जहां एक ओर संताल हूल को कार्ल माक्र्स ने भारत की पहली जनक्रांति बताया वहीं डब्ल्यू.डब्ल्यू.हन्टर (1868),एफ.बी.ब्रोडले-बर्ट (1905) आदि साम्रज्यवादी लेखकों ने इसे महाजनों और जमींदारों के खिलाफ बताया और स्पष्ट किया कि संताल अंग्रेजों और विदेशी शासन के खिलाफ नहीं थे जिनके सम्बन्ध में उन्हें जानकारी नहीं थी जबकि तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड डलहौजी (1848-1856) ने इसे स्थानीय उपद्रव बताकर इस विद्रोह की उपेक्षा करने की कोशिश की थी। इन साम्रज्यवादी लेखकों ने इस विद्रोह की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से भी विवेचना करने की कोशिश की और इसे हिन्दू महाजनों और जमींदारों के खिलाफ बताया। पर यह एक जनक्रांति थी और इसमें शामिल विद्रोही विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे। वे अपना राज “गरीबों का राज” स्थापित करना चाहते थे। इसलिए आज भी आदिवासी,पिछड़े और दलित समाज के लोग सिदो और कान्हू सरीखे किसी मुक्तिदाता के आविर्भाव की प्रतीक्षा में हैं।

प्रस्तुति :-डॉ सिकंदर कुमार ,दुमका (लेखक )

Post Author: Sikander Kumar

Sikander is a journalist, hails from Dumka. He holds a P.HD in Journalism & Mass Communication, with 15 years of experience in this field. mob no -9955599136

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