डॉ दिनेश नारायण वर्मा ,इतिहासकार
झारखण्ड देखो डेस्क :संताल विद्रोह 1855-1856 के विभिन्न पहलुओं पर अधिकारिक रूप से लेखन कार्य करने के लिए प्रख्यात इतिहासकार डा.दिनेश नारायण वर्मा ने कहा कि साम्राज्यवादी दस्तावेजों में संताल विद्रोह सम्बन्धी सभी वर्णन ऐतिहासिक और प्रामाणिक नहीं हैं। इन दस्तावेजों की समीक्षात्मक विवेचना की आवश्यकता बताते हुए प्रोफेसर वर्मा ने इनमें वर्णित ऐतिहासिक तथ्यों के तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया और स्पष्ट किया कि साम्राज्यवादी दस्तावेजों में कई तरह की खामियां हैं क्योंकि ये दस्तावेज साम्राज्यवादी लेखकों और अधिकारियों द्वारा लिखे गये जिनका एकमात्र लक्ष्य साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करना और साम्राज्यवादी कार्रवाइयों को जायज ठहराना था। इतिहासकार वर्मा के अनुसार इस दस्तावेज में किसी भी साम्राज्यवादी सिविल और सैनिक पदाधिकारी को इसके लिए उत्तरदायी नहीं बताया गया। संताल विद्रोह की 165वीं वर्षगांठ के मौके पर इतिहासकार वर्मा ने कहा कि संताल विद्रोह 1855-1856 के प्रामाणिक अध्ययन हेतु “द कलकत्ता रिव्यू: वाल्यूम 26(51) जनवरी–जून 1856″ (पृ.223–264) एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज अवश्य है पर इसमें वर्णित सभी तथ्य प्रामाणिक नहीं है और कई ऐतिहासिक और प्रामाणिक तथ्यों का इसमें उल्लेख भी नहीं है। इसके बावजूद डा.वर्मा के अनुसार शोध विद्वानों और इतिहासकारों द्वारा इसका व्यापक अध्ययन नहीं किये जाने से संताल विद्रोह से सम्बन्धित कई ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी किसी को नहीं है। उन्होंने बताया कि दस्तावेज के अनुसार महाजन और सिविल कोर्ट के छोटे-बड़े सभी अधिकारी आपस में मिले हुए थे और सम्मिलित रूप से संतालों का शोषण और दमन किया करते थे। अंग्रेज अधिकारी जाँच का जिम्मा अपने जिन अधिनस्थ अधिकारियों को देते थे वे भी उनका शोषण करते थे और संतालों के खिलाफ रिपोर्ट करते थे। उनके द्वारा दो संताल युवतियों के अपहरण और उनकी हत्या का मामला सामने आया और उनके घरों से जबर्दस्ती उनके जानवरों आदि को बिना मूल्य चुकाये ले जाने का भी मामला उजागर हुआ। प्रो.वर्मा ने कहा कि इन घटनाओं के लिए वे यूरोपीय अधिकारी जिम्मेवार थे जो रेल लाइन बिछाने के लिए नियुक्त किये गये थे। लेकिन उनके विरूद्ध किसी प्रकार की कार्रवाई किये जाने का उल्लेख इस दस्तावेज में नही है।
डा. वर्मा के अनुसार विभिन्न देवी देवताओं के आविर्भाव को दस्तावेज में बहकाने वाली धार्मिक अंधविश्वास बताया गया और इस तरह के बेतुकापन से विद्रोहियों के उत्साह को बनाये रखा गया जो विलकुल ही गलत और गैर-ऐतिहासिक हैं क्योंकि इससे लोग बहके नहीं बल्कि उनमें एकजुटता कायम हो गयी जो कम्पनी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। प्रो. वर्मा ने कहा कि लोहार,कुम्हार,तेली,ग्वाला,बढ़ई आदि के विद्रोह में शामिल होने से संतालों की शक्ति बढ़ गई। पर दस्तावेज में इन लोगों को विद्रोह में शामिल होने के लिए विवश किया जाने का उल्लेख एकदम गलत है क्योंकि महाजनों,जमींदारों और अंग्रेज साहिबों द्वारा ये लोग भी शोषित और प्रताड़ित हुए थे। उनके अनुसार भागलपुर के कमिश्नर के विभिन्न पत्रों से प्रामाणित है कि अन्य जनजातियों,दलितो और पिछड़ों ने भारी संख्या में संतालों की सक्रिय मदद की थी और उनके साथ परम्परागत हथियारों से विदेशी फौज से संघर्ष किया था।
डा. वर्मा ने यह भी बताया कि दस्तावेज के अनुसार धार्मिक भवनाओं को भड़काने की कोशिश की गई और विद्रोहियों द्वारा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए धर्मान्ध मुसलमानों को भी उत्तेजित किया गया । डा. वर्मा के अनुसार दस्तावेज में संताल विद्रोह को भी उन विद्रोहों की तरह वर्णित किया गया जो विद्रोह संताल विद्रोह के पूर्व बंगाल में हो चुके थे। यह संताल विद्रोह से सम्बन्धित प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों के विरूपण का स्पष्ट प्रमाण है।इतना ही नहीं,दस्तावेज में विद्रोह के समय हुई आगजनी,लूटपाट,हत्या, डकैती, पुरुषों,बच्चों और महिलाओं के साथ अत्याचार, क्रूरता,बुजुर्गों के साथ अत्याचार आदि का वर्णन है। यह भी उल्लेख है कि सैंकड़ों लोगों के बजाय हजारों लोगों द्वारा अपराध को अन्जाम दिया गया हो। डा. वर्मा के अनुसार इस तरह का वर्णन ऐतिहासिक घटनाओं का सही चित्रण नहीं है बल्कि स्पष्ट रूप से एकांगी और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का पुख्ता प्रमाण है। दस्तावेज में वर्णित धार्मिक भावनाओं को भड़काने और धर्मान्ध मुसलमानों को उत्तेजित कर संतालों द्वारा उनका सहयोग लेकर अपनी स्थिति मजबूत करने के सम्बन्ध में यह जानना जरूरी है कि विद्रोह में मुस्लिम समुदाय के लोग स्वत:स्फूर्त रूप से शामिल हुए थे। विद्रोह के पूर्व सिदो नेअपनी रणनीति के तहत मुस्लिम समुदाय के मोमिनों (जुलाहों )से सम्पर्क किया था और सहयोग प्राप्त कर लिया था। इतिहासकार वर्मा के अनुसार तत्कालीन संताल परगना का सामाजिक ताना बाना कुछ ऐसा था कि आदिवासी,हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के दलित वर्ग व्यवसायिक रूप से एक दूसरे के काफी घनिष्ठ सम्पर्क में थे और महाजनों, जमींदारों और अंग्रेज साहिबों की वर्षों की मिलीभगत के समान रूप से शिकार हुए थे। उन्होंने कहा कि इनमें धर्मांधता की बू नहीं थी बल्कि वे आपसी भाईचारे की भावना से प्रेरित हुए थे जिसने धर्म और जाति के बन्धनों को तोड़ दिया था। इतिहासकार वर्मा के अनुसार देश में साम्प्रदायिक एकता की यह पहली मिशाल थी जिसने पहली बार भारतीयों को साम्प्रदायिक एकता की ताकत से अवगत कराया था। साम्राज्यवादी और फूट डालो और राज करो की नीति से प्रेरित लेखकों से इस तरह की जमीनी हकीकत पर टीका-टिप्पणी किये जाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह एकता विदेशी शासन को एक जबर्दस्त चुनौती थी और इसको तरजीह देना साम्राज्यवादी लेखकों के लिए सम्भव नहीं था।
डा. वर्मा के अनुसार दामिन-इ -कोह के अधीक्षक,स्थानीय अधिकारियों आदि की भूमिका की चर्चा है पर दस्तावेज में किसी भी ब्रिाटिश सिविल,सैनिक और न्यायिक अधिकारी और उनके अधीनस्थ कर्मचारियों आदि की संतालों के खिलाफ महाजनों आदि के साथ मिलीभगत का वर्णन नहीं है जैसा कि संताल विद्रोह के अन्य प्रामाणिक साक्ष्यों और ग्रंथों में उल्लेख है। पर द फ्रेंड ऑफ इंडिया की मांग कि सिउड़ी,राजमहल,भागलपुर आदि स्थानों में 3.मिलिटरी पोस्ट स्थापित किये जायं का समर्थन किया गया। पूरे इलाके में इसकी स्थापना की उम्मीद की गई और इसकी प्रशंसा की गई।इसके अलावा पुलिस नियंत्रण स्थापित करने के लिए भी कहा गया। इतिहासकार वर्मा ने यह भी कहा कि दस्तावेज में संताल विद्रोहियों को कठोर रूप से दंडित किये जाने की द फ्रेंड ऑफ इंडिया की वकालत का भी समर्थन किया गया और ” उनसे बदला लेने को कहा गया क्योंकि उनको सबक सिखाना जरूरी है। इससे प्रभावित जिलों के सभी संतालों को पेगू भेज देना चाहिये और सशस्त्र विद्रोह को किसी भी हालत में बर्दाश्त नही किया जाना चाहिये। उनको कठोर रूप से दंडित करने के लिए एक कमिशन बनाना चाहिये जैसा कि कनाडा में 1838 ई.में किया गया था। गांवों पर आर्थिक दंड लागना चाहिये और इसे विद्रोह से प्रताड़ित लोगों में वितरित कर देना चाहिये। ब्रिाटिश सत्ता की प्रतिष्ठा की स्थापना के लिये आम संतालों को दंडित किया जाना चाहिये।” इस प्रकार द फ्रेंड ऑफ इंडिया की इस मांग को दस्तावेज में जायज ठहराया गया और संतालों को कठोरतम रूप से दंडित करने को कहा गया। दस्तावेज में यह भी वर्णित है कि विद्रोही संतालों की पूरे इलाके में खोज की जाय और उन्हे दामिन-इ-कोह बापस जाने को विवश किया जाय।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि द कलकत्ता रिव्यू,1856 एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज है पर इस में वर्णित सभी तथ्य ऐतिहासिक और प्रामाणिक नहीं हैं। इस में सरकारी अधिकरियों,सैनिकों,पुलिस और कर्मचरियों आदि के अत्याचार और उनके द्वारा बड़े पैमाने पर विद्रोहियों का दमन किये जाने का उल्लेख नहीं है। इस में कम्पनी के सैनिकों और अधिकारियों द्वारा संताली गांवों में आग लगाने,संतालों और विद्रोहियों की हत्या करने, बड़ी संख्या में लोगों की गिरफ्तारी और दमन, महाजनों,जमींदारों और साहिबों की संतालों के खिलाफ मिली भगत और उनका बड़े पैमाने पर शोषण करने आदि का भी उल्लेख नहीं है। इतिहासकार वर्मा के अनुसार किसी भी अधिकारी को विद्रोह के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया गया,हर दृष्टिकोण से सरकारी पक्ष का ही प्रतिधिनित्व किया गया,इसकी आलोचना नहीं की गई और ऐतिहासिक वास्तविकताओं पर पर्दा डालने की भरपूर कोशिश की गई। उन्होंने बताया कि संताल विद्रोह का जनसांख्यकीय संगठन और जनजातियों,पिछड़ों और दलितों के विदेशी शासन के खिलाफ एकजूट होने के सम्बन्ध में यह दस्तावेज एकदम मौन है। उनके अनुसार मार्शल कानून लागू करने में हुई देरी पर सवाल अवश्य उठाये गये और इसकी आलोचना की गयी। विभिन्न अभिलेखागारों में संरक्षित दस्तावेजों में वर्णित ऐतिहासिक तथ्यों के अनुरूप भी “द कलकत्ता रिव्यू:1856” में वर्णित तथ्य नहीं हैं। इस प्रकार नि:संदेह यह एक प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज है पर इसमें वर्णित सभी तथ्य ऐतिहासिक और प्रामाणिक नहीं हैं। यह एक साम्राज्यवादी दस्तावेज है जो मूल रूप से साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रख कर लिखा गया दस्तावेज है। इतिहासकार वर्मा के अनुसार इन खामियों के बावजूद इसकी महत्ता है,इसे पूरी तरह से रिजेक्ट करना कठिन है क्योंकि संताल विद्रोह की अनेक प्रामाणिक ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी हेतु यह दस्तावेज आज भी प्रासंगिक है।