बाबूलाल मुर्मू आदिवासी : देवनागरी लिपि के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तक ठुकरा दिया, उनकी 70वें जयंती पर विशेष
जन्म : 12 जनवरी, 1939
निधन : 4 फरवरी, 2009
लेखक :डॉ. आर.के नीरद
झारखण्ड देखो : बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ संताली के ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध करने के एकमात्र लक्ष्य के साथ जीवन जीया। पहले मध्य विद्यालय के मास्टर (1965) और फिर भारतीय सेना में जमी-जमायी नौकरी (1965-1986) छोड़ी। फिर संताली भाषा की उसी पत्रिका ‘होड़ सोम्बाद’ में संपादक बने, जिसमें बाल्यकाल से अपनी रचनाएं छपने पर असीम आत्मिक सुख पाते थे। ‘हो़ड़ सोम्बाद’ पढ़ कर उनमें संताली भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग पैदा हुआ। उनकी पहली रचना जब उसमें छपी, तो यह अनुराग और गाढ़ा हो गया। फिर उसके लिए लिखने का सिलसिला चल पड़ा। इस पत्रिका की प्रति हासिल करने के लिए नाना प्रकार के उपक्रम करते थे और जब सेना में नौकरी मिली, तो हर तीन साल में नये-नये शहरों रांची, नेफा (अरुणाचल प्रदेश), पानागढ़ और पटना में तबादले को अपनी साहित्यिक दृष्टि को विस्तार देने, नयी-नयी साहित्यिक संगती बनाने और संताली भाषा-साहित्य के विकास के लिए संगठनात्मक रूप में योगदान करने के अवसर के रूप में जीया, मगर ‘हो़ड़ सोम्बाद’ का संपादक बनने की लालसा कम नहीं हुई और जब 4 अप्रैल, 1986 को इसे पूरा करने का अवसर मिला, तो सेना की नौकरी छोड़ने में जरा भी देरी नहीं की।
‘हो़ड़ सोम्बाद’ बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की संताली भाषा में साहित्यिक पत्रिका थी। 2000 के बाद झारखंड सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने इसके प्रकाशन के संकल्प को अक्षुण्ण रखा. इस पत्रिका के प्रथम संपादक डॉ. डोमन साहू ‘समीर’ थे. संताल समाज के सदस्य नहीं थे, किंतु संताली भाषा, संस्कृति और साहित्य पर उनकी अद्भुत पकड़ थी और इनके विकास के लिए वे जीवनभर श्रम, संघर्ष, चिंता, चिंतन और सर्जना करते रहे. इस क्षेत्र में उनका बहुत बड़ा योगदान है। आदिवासी जी पहले एकलव्य की भांति उनके शिष्य बने। फिर उनके सानिध्य भी भाषा और साहित्य के सूक्ष्म मूल्यों को जाना-सीखा और फिर उनके उत्तराधिकारी बने।
आदिवासी जी की संताली भाषा और संस्कृति को लेकर एक देशज और परंपरावादी दृष्टि थी। इस दृष्टि से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने साहित्य अकादमी जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया, जबकि कोई भी साहित्यकार आसानी से यह साहस नहीं कर सकता।
हुआ यूं कि आदिवासी जी देवनागरी लिपि में लिखते थे। वे जिस हो़ड़ सोम्बाद पत्रिका के संपादक बने, वह भी थी तो संताली भाषा की ही पत्रिका, किंतु लिपि देवनागरी ही थी। संताली भाषा की लिपि क्या हो, इसे लेकर पूरा संताल बुद्धिजीवी समाज अब भी एकमत नहीं है और न ही कोई एक लिपि उनके बीच सर्वमान्य है। झारखंड, असम, बिहार, ओड़िशा, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश और नेपाल में रह रहे संताल भाषाभाषी लोग स्थानीय लिपियों के प्रभाव में हैं और उन्हीं लिपियों में लेखन करते हैं। ओल चिकी लिपि के जन्म के 95 साल साल बाद भी रोमन, देवनागरी, बांग्ला, असमिया, नेपाली आदि लिपियां इनके बीच प्रचलित है।
आदिवासी जी देवनागरी लिपि में न केवल लिखते थे, बल्कि इस लिपि के पक्ष में उनके अपने ठोस तर्क भी थे। जब संताली रचनाकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार देना शुरू हुआ, तो लिपि को लेकर बड़ा प्रश्न भी उठा। यह प्रश्न इतना दुरूह हो गया कि आदिवासी जी के नाम और उनकी रचनाओं पर विचार करने में बाधा आती रही। इस बात को लेकर आलाेचना भी हुई। आदिवासी जी को 2005 के आसपास साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए नामित किया गया, किंतु यह प्रस्ताव दिया गया कि अगर वे ओल चिकी लिपि में रचना करें या अपनी रचनाओं को इस लिपि में तैयार कराएं, तो उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार देने पर विचार किया जायेगा। आदिवासी जी को यह स्वीकार न हुआ। वे केवल पुरस्कार पाने के लिए लिपि बदलने को तैयार नहीं हुए। साहित्य अकादमी पुरस्कार सभी लिपियों में लिखने वाले संताली साहित्यकार को मिले, पुरस्कार आ आधार भाषा-साहित्य हो, लिपि नहीं, इसे लेकर वे जीवन के अंतिम दिनों तक संघर्ष करते रहे। वर्ष 2005, उसके पहले और उसके बाद भी ‘आदिवासी’ जी ने इस विषय पर खूब पत्राचार किया। उनका यह संघर्ष स्वयं के लिए, बल्कि संताली भाषा के उन तमाम साहित्यकारों के लिए था, जो ओल चिकी लिपि में नहीं लिखते हैं। हो़ड़ सोम्बाद के संपादक होने के बाद बाबूलाल जी पहले देवघर आ गये थे और बाद में प्रमंडलीय मुख्यालय दुमका होने के कारण इसके संपादन कार्य दुमका से शुरू हुआ। तब वे दुमका आ गये है और शहर से सटे कड़हरबिल गांव के हिरण टोला में एक छोटा-सा कच्चा मकान बना कर रहने लगे थे। यहां उनसे मेरी अक्सर मुलाकात होती थी। जब संताल जनजातीय समाज की ‘जादोपटिया पेंटिंग’ की 1990-1995 में मैंने खोज शुरू की थी और यह स्थापित करने में लगा था कि यह संताल जनजातीय पेंटिंग है, तब डॉ डोमन साहू ‘समीर’ और ‘आदिवासी’ जी, दोनों से अक्सर संताल संस्कृति को लेेकर मेरी चर्चा होती रही। मृत्यु (4 फरवरी, 2009) के कुछ समय पूर्व आदिवासी जी ने मुझे कई साक्षात्कार दिये थे, जिनमें संताली साहित्य और लिपि को लेकर अपनी चिंता और अपना चिंतन साझा किया था।
उन्हें भले साहित्य अकादमी में लिपि के प्रश्न को लेकर पुरस्कार नहीं दिया, किंतु संताली लेखक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा, मान्यता और उनका योगदान कम नहीं है। उन्हें कई अन्य पुरस्कार मिले। वे विश्वभारती शांति निकेतन और सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय के संताली परीक्षा बोर्ड के सदस्य, के.के बिड़ला फाउंडेशन की संताली भाषा समिति के संयोजक और संताल अकादमी जैसे दर्जनभर प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे। अनेक संगठन उन्हें पुरस्कार और सम्मान देकर खुद पुरस्कृत और सम्मानित होते रहे। झारखंड राजपाल (2006) और झारखंड सरकार (2008) ने भी उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए सम्मानित किया। आज उनका साहित्य विश्वभारतीय, शांति निकेतन, सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका सहित कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है. उनके साहित्य पर हिंदी और संताली में हुए शोधकार्य के लिए पीएचडी की उपाधि तक प्रदान की गयी है. एक संताली साहित्यकार की कृतियों पर हिंदी भाषा में शोध और पीएचडी की डिग्री दिया जाना यह बताता है कि आदिवासी जी गैर संताली भाषा-भाषियों के बीच भी साहित्य के तौर पर आज भी किस हद तक लोकप्रिय हैं। ‘आदिवासी’ उनका उपनाम था। इस उपनाम में ही आदिवासी अस्मिता के प्रति उनका चिंतन ध्वनित होता है।
उनका जन्म 12 जनवरी,1939 को बिहार के बांका (तब भागलपुर जिले का एक अनुमंडल) के दुधसिमर गांव में हुआ था. पिता सुजान मुर्मू किसान और मां हिसी सोरेन सामान्य गृहिणी थी. हिसी सोरेन सुजान मुर्मू की दूसरी पत्नी थी। आदिवासी जी माता-पिता की पांचवीं संतान थे। दो बहनें उनसे छोटी थीं। गरीबी के कारण कई बार पढ़ाई छूटी। 1963 में एमए की पढ़ाई भी अधूरी रही, जिसे 1985 में उन्होंने पूरा किया।
बहरहाल, ‘आदिवासी’ जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में 1966 से 2004 तक 23 पुस्तकों की रचना की। वे कुशल बांसुरीवादक, लोक नर्तक और रंगकर्मी थे। उन्होंने एक लघु फिल्म में भी काम किया था। जब पांचवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने ‘बोयहा बाबोन बेगारोक्आ’ शीर्षक से कविता रची थी। यह तब ‘होड़ सोम्बाद’ पत्रिका में छपी थी. उसके बाद आदिवासी जी की साहित्य सृजन की यात्रा शुरू हुई। इस पत्रिका में उनकी कई कहानियां, कविताएं और आलेख छपे। होड़ सोम्बाद देवनागरी लिपि में निकली थी, इसलिए आदिवासी देवनागरी में ही लिखते थे। उन्होंने जीवन में जो भी कमाया (अर्थोपार्जन), उसका अधिकांश हिस्सा साहित्य पर खर्च किया। प्रकाशक के अभाव में खुद अपनी पुस्तकों के प्रकाशक बने। हालांकि पटना के संचयन प्रकाशन भी दो पुस्तकों के प्रकाशन में सहयोग किया।
उनकी कविताओं पर छायावाद का प्रभाव है। उनमें सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक पक्ष ठोस उभार के साथ विद्यमान है। मिसाल के तौर पर-
झारनाक् काना झारना दाक्
आ़़तुक् लेका मेंत् दाक्
साडे काना ठीक ओना
बिछो़क् गातेञ हो़मो़र लेका।
(झर रहा है, झारना का पानी/
बह रहे हैं जैसे आांखों से आसूं/ आवाज आ रहा है ठीक वैसा/ प्रिय से बिछुड़ने के रोने जैसा)।
बहरहाल, बाबूलाल मुर्मू आदिवासी संताली भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी बड़े हस्ताक्षर हैं।
बाबूलाल मुर्मू ‘आदिवासी’ जी की 70वें जयंती पर नमन एवं जोहार!