प्रेस स्वतंत्रता दिवस: 3 मई
लेखक :डॉ विनोद कुमार शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर,
निदेशक
मानसिक स्वास्थ्य परामर्श केंद्र,
मनोविज्ञान विभाग,
एस पी कॉलेज, दुमका।
झारखण्ड देखो डेस्क : मीडिया जिसका कि लिटेरल मीनिंग उस संचार माध्यम से होता है जिससे देश, विदेश , प्रदेश व आसपास में घटी घटनाओं की खबर लोगो तक निष्पक्ष रूप से आसानी से पहुंच जाय। यह प्रिंट मीडिया में चाहे समाचार पत्र-पत्रिकाएं हो व टेली मीडिया के टी वी चैनल्स। या फिर रेडियो आकाशवाणी हो या आज की सोशल मीडिया। सभी अपने स्तर से लोगों को सच बताने का प्रयास में दिनरात एक किये हुए है। ऐसी लोककल्याणकारी व राष्ट्रहित सेवा जिससे लोगो मे उसके प्रति ना केवल विश्वास की भावना प्रगाढ़ हो बल्कि उसकी लोकप्रियता भी औरों से बढ़ कर हो।
मीडिया देश में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में देखी जाती है। इस विश्वास से कि ये सत्य का साक्षी है तो प्रेरक भी।
मीडिया जहां लोगो के विचार, निर्णय, मनोवृति, दशा व दिशा बदलने की दम रखता है तो वहीं झूठों का तख्तापलट करने की क्षमता भी दिखाता है। भ्रष्टाचार के सीने पर जहां अमिट छाप छोड़ता है तो वही बेईमानों की दुकानें बंद कर देती है। लोगो की नजर में मीडिया अपनी आंखों से देख व कानो से सुन सच्चाई को जनता के बीच सीधे-सीधे कहने वाला पथ प्रदर्शक है। तो रण क्षेत्र का सारथी भी। इन सच्चाइयों व अच्छाइयों के बावजूद वो अपनी सीमाओं के चक्रव्यूह में जा फंस गया है और अपना व्यवहारिक जीवन शैली बदल लिया है।
परिवर्तन प्रकृति का एक नियम है। इसका तात्पर्य कतिपय यह नही होना चाहिए कि यह बदलाब अपने मानको व लोगो के इच्छा व प्रत्याशा के विरुद्ध हो। मर्यादाओं को लांघ चलने वाला हो। विचलित आचरणों का हो। मगर आश्चर्य की बात है कि यह सब भी घटित हो रहा है। जीवन की आवश्यकता को बदलते देख मीडिया ने भी अपना रंग बदल लिया है। उनकी ख़बरों की थैली भर गई है। छलकने लगी है इतनी कि वो परंपरागत आचरणों को छोड़ नए मनोवैज्ञानिक सोच व विश्वास जगा ली है। अपनी हीनता की भावना को दूर कर शायद एक क्षतिपूर्ति व्यवहार कर रहा है। संभवतः इन नायाब आवश्यकताओं के साथ नई जीवन शैली भी अपना ली है। कहना ना होगा अब वो महत्वपूर्ण सूचनाओ को सुगम व यथार्थ के साथ विस्तारपूर्वक जनता के समक्ष रखने में रुचि रखने के बजाय अपने व्यक्तित्व सौंदर्य को देखने व दिखाने में लग गया है। अपने को काफी मूल्यवान, होनहार व लोकप्रिय बनाने में लग गया है। हरकदम आगे चलने की प्रतियोगी दौड़ में शायद वो यह भूल चले कि वो इस अप्रत्यशा मे अब औरों की भी हो चले है। यानी वो हर नये उदयमानो से रिश्ते जोड़ चलने को शौकीन हो रहे है। वो उन्हें अवसरों का सीढ़ी मान ऊपर शिखर पहुँचने को बेताब दिखते है। तैयार दिखते है। उतना ही अभिप्रेरित भी।
इस बदलते जीवन शैली की गत्यात्मकता पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि डाले तो निम्न बातें नजर आती है :
1. चयनात्मक भावना : आज टेली हो या प्रिंट मीडिया या सोशल मीडिया की कोई खबरें लोग उन्ही को उठाते या जगह देते है जो उन्हें पसंद होता है। सूचनाओं के ढ़ेर से कोई मनोनुकूल खबरें निकाल कर छापते है या फिर दिनरात चैनलों पर चलाते है।
2. निष्पक्षता का उल्लंघन: जिस न्यूज़ को सही-सही आना चाहिए उसमे तमाम किस्म के किन्तु, परंतु का भाव तौल कर तोड़मरोड़ कर या फिर आधी अधूरी खबरे दी जाती है। और खबरों को देने में भी उसे जाति, धर्म, समुदाय के महत्व, लोकप्रियता या बदनामी के प्रभाव-प्रसार के हितार्थ फायदे की छननी से छान कर चलते है।
3. ख़बरों की ब्लैकमेलिंग: मीडिया ने बदलते अपने जीवन शैली में खबरों का ब्लैकमेलिंग भी शुरू कर दी है। ऐसी कोई खबर हाथ लगी नही की लाखों की डील होने लगी। और फिर देखते-देखते लाखो के मालिक हो जाते है।
4. फेंक खबरें: ऐसी खबरें ज्यादातर सोशल मीडिया पर देखी जाती है। जहां पर वेब या प्रिंट मीडिया की छपी कई ख़बरों को फेंक खबर पाया गया है जिसके पीछे का मनोविज्ञान भी अध्ययन का एक विषय है जो भी इस बदलते जीवन शैली के सोच, मकसद व इरादे का ही सबूत है।
5.असार्थक खबरों की प्रमुखता: आजकल खबरों की प्रमुखता व्यक्ति का ज्ञान व विषय विशेषज्ञता नही रही बल्कि व्यक्ति के संबंध व पहुंच बन चला है जो निजी लाभ का परिचायक है। पैसे के बहाने ऐसी बेकार की खबरें जहां प्रमुखता से छपी जाती है तो वही किसी को खुश करने या स्वार्थसिद्धि के लिए अखबारों में वेबजह जगह भरते है।
6. ख़बरों का बनाया जाना: ये कारपोरेट जगत की बात हो या सेलेब्रिटीज की दुनिया की। यहां खबरें बनती कम ज्यादा बनाई जाती है। टेली हो या प्रिंट मीडिया के सुर्खियों में आने के लिए वो ना केवल लालायित रहते है बल्कि बैचैन व पागल भी। बस इसे एक सुनहरा मौका समझ मीडिया उनकी चाहत को पूरा कर लाखों झटके में समेट लेते है और जीवन शैली बदल लेते है।
7. टीआरपी प्राथमिकता: खासकर के न्यूज़ चैनल उन्ही खबरों को लेना व दिखाना पसंद करते है जिससे उसका टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग प्राइस) बढ़े। भले वो न्यूज़ महत्त्वहीन व निरर्थक क्यो ना हो।
इस बदलते परिवेश के सांचे में अपने जीवन शैली को ढालना मीडिया जहां अपनी मजबूरी मानते है, वक़्त की मांग कहते है, वही वो अंकुरित होते कॉरपोरेट घराने व पूंजीपतियों की सेवा करना मीडिया ना केवल अपना एक उद्देश्य समझते है बल्कि धर्म भी। जबकि सच्चाई इसके उलट है। ऐसा नही कि खबरों के द्वारा जनता की सेवा उसके कर्त्तव्यबोध से दूर चली गई है बल्कि यूँ कहे कि इसके नाम पर उन घरानों की जीहुजूरी करना उन्हें अच्छा लगने लगा है। उन घरानों की चमक – दमक भाने लगी है। दिनरात उनकी झूठी तारीफों की पुल बांधना व न्यूज़ चैनलों में दिखाना मानो मीडिया के फितरत में आन बसा है। उन धनिकों के इशारे पर नाचना ऐसे मीडिया बंधुओं ना केवल अच्छा लगने लगा है बल्कि उनकी गुलामी को भी अपनी शान समझने लगे है। उन जैसों के इशारे पर खबरे आना व बनना और वही खबरें प्रसारित होना या चलना जो फूल टीआरपी देता हो। जहाँ कि ख़बरों का उद्देश्य सच्चाई को बतलाना नही बल्कि इसके आड़ में बिजनेस करना है। एक दूसरे को लाभ पहुंचाना है।